भावनात्मक अतिरेक का शिकार बनता देश

santa
प्रतीकात्मक फोटो

-देशबन्धु में संपादकीय 

यूँ तो कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब हमारे देश में धार्मिक विद्वेष और घृणा का कोई मामला सामने न आता हो। पूरे साल भर अल्पसंख्यकों – खास तौर से मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक अभियान सा चलता रहता है लेकिन साल ख़त्म होते-होते नफ़रती जमात का रुख़ ईसाई समुदाय की तरफ हो जाता है। इस समुदाय के त्यौहार वैसे ही गिने-चुने होते हैं, फिर भी हर मुमकिन कोशिश की जाती है कि वह उन्हें शांति से न मना पाये। क्रिसमस के आसपास ऐसी कोशिशें बहुत खुलकर और तेज होती दिखाई देती हैं।

हाल ही में पलक्कड़ में एक स्कूल में बच्चों को क्रिसमस मनाने से रोका गया और शिक्षकों के साथ बदसलूकी की गई। अहमदाबाद के एक स्कूल में क्रिसमस ट्री समेत त्योहार की सारी साज-सज्जा हटवा दी गई। आगरा में सांता क्लॉज़ मुर्दाबाद के नारे लगाये गये और उसका पुतला जलाया गया। गुजरात में सांता क्लॉज़ की पोशाक पहनकर लोगों को उपहार बाँट रहे शख्स को यह कहकर पीटा गया कि यह हिन्दुओं का इलाका है, यहाँ ये सब नहीं चलेगा। इंदौर में एक डिलीवरी बॉय की सांता क्लॉज़ की पोशाक उतरवा ली गई। उससे कहा गया कि जब हिन्दू त्योहारों पर तुम किसी देवी-देवता जैसी पोशाक नहीं पहनते हो तो क्रिसमस पर क्यों। लखनऊ में भीड़ ने चर्च के सामने हरे रामा-हरे कृष्णा गाते हुए उछल-कूद की।

इस बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वे तमाम तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुईं, जिनमें वे पादरियों के बीच खड़े हुए हैं या जीसस के शिशु प्रतिरूप के सामने सर नवा रहे हैं। ज़ाहिर है कि ये तस्वीरें अपने आप तो नहीं आई होंगी। हमेशा की तरह एक बड़ी कैमरा टीम प्रधानमंत्री के साथ रही होगी, जिसने अलग-अलग कोण से उनकी तस्वीरें ली होंगी। प्रधानमंत्री ने ‘एक्स’ पर क्रिसमस की शुभकामनाओं का सन्देश भी प्रसारित किया, जिसमें उन्होंने कहा कि “प्रभु ईसा मसीह की शिक्षाएं सभी को शांति और समृद्धि का मार्ग दिखाएं।” उनसे पूछा जाना चाहिए कि इस ‘सभी’ में धर्म के नाम पर बवाल खड़ा करने वाले उनके भक्त भी शामिल हैं या नहीं या फिर ये ‘हाथी के दांत’ वाला मामला है !

जानकारों का मानना है कि पश्चिमी देशों को दिखाने के लिए ऐसे प्रपंच रचे जाते हैं। लेकिन पश्चिमी देश इतने मासूम तो नहीं कि इस दिखावे की हकीक़त न समझते हों। अगर ऐसा होता तो वे अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में भारत की आलोचना नहीं करते और न ही भारत को शर्मिन्दा होना पड़ता। ऐसी आलोचनाओं का जवाब देने की भी उसे ज़रूरत होती। जो देश लोकतंत्र की जननी और दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति होने जैसे दावे करता है, उस पर दुनिया की नज़रें बनी ही रहती हैं। अभी-अभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया डॉ. मोहन भागवत ने भी ये कहा कि “हर मस्जिद के नीचे मंदिर की तलाश बंद होनी चाहिये।” काश, वे यह भी कहते कि दूसरे धर्मों के आराधना स्थलों और शिक्षा संस्थानों पर आये दिन किया जाने वाला हुड़दंग बंद होना चाहिये।

हिंदुत्व के नाम पर उपद्रव करने वालों को ये अहसास नहीं है कि करोड़ों भारतीय – जिनमें ज़्यादातर हिन्दू ही हैं, पढ़ाई, रोज़गार या फिर कारोबार के लिये विदेशों में रह रहे हैं, उन पर ऐसी बेजा हरकतों का क्या असर हो सकता है। बांग्लादेश का ताज़ा उदाहरण हमारे सामने है, जहाँ हिन्दुओं पर अत्याचार को लेकर काफ़ी शोर मचाया गया, विरोध प्रदर्शन किया गया। इस सबके बावजूद मोदी सरकार चुप रही क्योंकि वह अपना नैतिक अधिकार खो चुकी है। बांग्लादेश में इस्कॉन पर हुए हमलों पर भी आक्रोश जताया गया, लेकिन इसी संस्था से जुड़े लोग अपने ही देश में चर्च के सामने बेहूदगी दिखा रहे हैं। क्या यह माना जाये कि बांग्लादेश में जो कुछ हुआ, उसकी कुंठा भारत में इस तरह निकाली जा रही है ? एक राष्ट्र और समाज के तौर पर दुनिया में हमारी छवि कैसी बन रही है, इस बात से बेपरवाह धर्म के ठेकेदार देश के भीतर गृह युद्ध की नौबत लाने पर उतारू हैं।

हालांकि इस बार क्रिसमस पर कुछ मज़ेदार चीज़ें भी देखने को मिलीं जैसे जिंगल बेल…जिंगल बेल…को कहीं कव्वाली और कहीं पंजाबी रैप की शैली में गाया जाना, कहीं गायत्री मंत्र तो कहीं ओम जय जगदीश हरे की तर्ज़ पर जिंगल बेल गाकर सांता बने बच्चे की आरती उतारना। आर्टिफ़िशिअल इंटेलिजेंस के जरिये दुनिया की मशहूर हस्तियों को त्योहारी वेशभूषा में एक-दूसरे के साथ बैठे हुए बताना, या फिर भारत के नेताओं को अपनी भाषा,अपनी शैली में कैरोल गाते हुए दिखाना। इतना ही नहीं, लड्डू गोपाल का भी सांता क्लॉज़ जैसा श्रृंगार करना। गनीमत है कि इन चीज़ों से भावनाएं आहत होने की कोई ख़बर अब तक नहीं आई है। दरअसल, त्योहार होते ही इसलिए हैं कि इंसान अपनी रोज़मर्रा की भागदौड़ से कुछ राहत पाये, आनंद और उल्लास का अनुभव करे और खुशियाँ बांटे। ईद हो या बैसाखी, दीवाली हो या क्रिसमस – सारे त्योहार मिलजुल कर ही मनाने की हमारी रवायत रही है। लेकिन अब लगभग हर त्योहार पर सामूहिक मूर्खता और पागलपन के नज़ारे देखने को मिलते हैं।

सरदार पटेल ने कहा था कि “हिन्दू राज एक पागलपन से भरा ख़याल है और ये हिन्दुस्तान की आत्मा को ख़त्म कर देगा।” डॉ. अम्बेडकर ने भी धर्म आधारित राष्ट्र की मांग पर कहा था, कि “अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए एक भारी ख़तरा उत्पन्न हो जायेगा। हिन्दू कुछ भी कहें, पर हिन्दुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है। वह लोकतंत्र के लिये अनुपयुक्त है। हिन्दू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिये।” पटेल और अम्बेडकर – दोनों के ये कथन आज सच होते नज़र आ रहे हैं। अनेकता में एकता और गंगा-जमुनी तहजीब जैसी हमारी विशेषताएँ दफ़न होने को हैं और इनके लिये आवाज़ उठाने वाले मानो तलवारों की जद में हैं। हमारे संविधान द्वारा हमें दी गई धार्मिक स्वतंत्रता की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, लेकिन संविधान को अपना एकमात्र धर्मग्रंथ बताने वाले चुप हैं।

कितना दुखद है ये देखना कि जो देश सदियों से अपने मूल्यों और सिद्धांतों के लिये जाना जाता रहा है, वह बहुत तेजी से भावनात्मक अतिरेक का शिकार बनता जा रहा है। कहा नहीं जा सकता कि ये सिलसिला कब, कैसे और कहाँ जाकर रुकेगा।

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