
-द ओपिनियन डेस्क-
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर तस्वीर अब शीशे की तरह साफ हो गई है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अध्यक्ष पद के उम्मीदवार होंगे। उनके सामने कौन-कौन होंगे यह एक राजनीतिक सवाल होगा। लेकिन इसका गणितीय हल हर कांग्रेसी जानता है। गहलोत के पीछे की ताकत को हर कोई जानता होगा। गहलोत गुुरुवार को केरल गए थे जहां भारत जोड़ो यात्रा के दौरान उन्होंने राहुल गांधी से भेंट की। इस बीच राहुल गांधी ने यह भी साफ कर दिया था कि पार्टी एक व्यक्ति एक पद के अपने उदयपुर चिंतन शिविर के संकल्प पर दृढ़ रहेगी। इसका संदेश साफ था गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनेंगे तो उनको मुख्यमंत्री पद छोड़ना होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या गहलोत खुद कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाहते थे तो उसका जवाब ना में ही मिलेगा। यानी उनको इस पद पर पार्टी के शिखर नेतृत्व की ओर से ही आरूढ़ किया जा रहा है। इसलिए उनकी सफलता में किसी को संदेह नहीं है। अब देखना यह है कि उनके सामने कौन-कौन मैदान में उतरते हैं। शशि थरूर, दिग्विजय सिंह या अन्य कोई नेता दावेदारी में सामने आता है या नहीं। अब देखना है कि पार्टी अपनी पुरानी परम्पराओं पर आगे बढते हुए गहलोत के नाम पर आमराय कायम करती है या चुनाव की डगर पर चलती है।
मेरा बस चले तो मैं किसी पद पर नहीं रहूं
गहलोत ने शुक्रवार को स्पष्ट कर दिया कि उनका बस चले तो वे किसी भी पद पर न रहें। गहलोत की पार्टी और पार्टी नेतृत्व के प्रति समर्पण या निष्ठा असंदिग्ध है यह उन्होंने फिर साबित कर दिया है। वह कहते हैं चुनाव के नतीजे चाहे जो भी हों, एकजुट होकर काम करना और यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि पार्टी एक मजबूत विपक्षी दल के रूप में उभरे। गहलोत कांग्रेस के सर्वाधिक अनुभवी नेताओं में से एक हैं। वे तीन बार कांग्रेस के महामंत्री रह चुके हैं। तीन बार प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और मुख्यमंत्री पद पर तीसरी बार आसीन हैं। चार दशक का उनका राजनीतिक अनुभव कांग्रेेस के लिए राजनीतिक पूंजी है।
राजस्थान की बागडोर किसके हाथ होगी
अब यदि गहलोत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाते हैं तो फिर राजस्थान की बागड़ोर किसके हाथों में होगी। राजनीतिक हलकों में अब यही सवाल तैर रहा है। इस दौड़ में सचिन पायलट निसंदेह आगे हैं। लेकिन वे अकेले दावेदार नहीं है। गहलोत व पायलट के बीच मौैजूदा सरकार के गठन के समय से ही रस्साकशी चल रही है। पहले भी राजनीतिक तूफान उठे और जादूगर ने पार पाली। पर इस बार वाला सियासी तूफान नहीं है यह बहुत बड़ी चुनौती है जो वह पार्टी के सिमटे जनाधार को थामना और फिर उसको विस्तार की पटरी पर लाना। लेकिन अध्यक्ष के चुनाव से ज्यादा राजनीतिक हलकों में दिलचस्पी अब इस बात में ज्यादा दिखाई दे रही है क्या सचिन की ताजपोशी आसानी से हो जाएगी या फिर सत्ता समीकरण बदल जाएंगे। जादूगर की जादूगरी के अभी कई सियासी रंग बाकी हैं।