
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

उलझते ही रहे बेकार तुम से।
कोई जीता भला सरकार तुम से।।
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किसी की बात कब मानी है तुमने।
यही था मसअला हर बार तुम से।।
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ज़हे-क़िस्मत* तुम्हारी दुश्मनी भी।
रहेगा ज़िंदगी भर प्यार तुम से।।
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मैं अपनी हसरतों को बेचकर अब।
करूॅंगा इक नया व्यापार तुम से।।
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तुम्हारी हर अदा पहचानता हूंँ।
रहूॅंगा अब ज़रा हुशियार तुम से।।
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तुम्हारे दम से है इस घर की रौनक़।
दरख़्शाँ सब दरो-दीवार तुम से।।
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बनोगे तुम अगर पतवार “अनवर”।
लगेगी दिल की कश्ती पार तुम से।।
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शकूर अनवर
ज़हे क़िस्मत*खुश किस्मती,सौभाग्य
दरख़्शाँ* चमकदार
9460851271