
प्रेम में सबसे पहले अहंकार टूटता है, जहां ‘मैं’ है वहां प्रेम नहीं है, वहां जीवन भी नहीं है। जीवन जब अपने ही प्रकाश से चमकने लगता है तो मान लेना चाहिए कि जीवन प्रेम से प्रकाशित हो रहा है। प्रेम अर्थ है और प्रेम ही जीवन है जहां प्रेम नहीं है वहां हिंसा है, क्रूरता है , अहंकार का राज है और ऐसी दुनिया जीने लायक नहीं होती यहां बस अंह का राज होता है। जहां प्रेम न होकर केवल दिखावा होता है। प्रेम तो बस सहज रूप में अपने को प्रकट करने की कला है। जब आप अपने रूप को पूरा पूरा समझने की कोशिश करते हैं , जब संसार को समझने लगते हैं और संसार के साथ संवाद की स्थिति में होते हैं तो आप स्वाभाविक रूप से प्रेम की अवस्था में होते हैं।
– विवेक कुमार मिश्र-

प्रेम जीवन की पूर्ण दशा है, जब जीवन में पूर्णता होती है, जब आप स्वयं को महसूस करते हैं और स्वयं की सत्ता में औरों की सत्ता को महसूस करते हुए जो व्यक्तित्व जन्म लेता है वह पूर्णता का ही प्रकाश फैलाता है। संसार को अपने भीतर महसूस करना ही प्रेम के अर्थ से प्रकाशित होना होता है। प्रेम की अनुभूति दर्शन के धरातल पर होती है, दर्शन के स्तर पर प्रेम की सत्ता को कण कण में देखते हैं और हर सत्ता सत्य रूप में एक समान दिखती है, जहां प्रेम होता है वहां किसी भी तरह का कोई भेद नहीं होता है, न ही अतिरिक्त पा लेने की लालसा होती है। प्रेम तो आदमी को मुक्त करना सीखाता है, जो भी बंधन में है , जो संसार में है उसे मुक्त दशा का बोध प्रेम ही कराता है। प्रेम से परे संसार का कोई भी अर्थ समझ पाना संभव नहीं होता। संसार में होते हुए भी संसार से परे दिखने की सत्ता प्रेम में ही होती है। संसार एक तरह से प्रेम का ही रूप है। जहां प्रेम है वहीं सत्ता है, वहीं जीवन है और वहीं से जीवन की हर नई राह शुरू होती है। प्रेम का साक्षात्कार इसी दुनिया में, इसी सांसारिक सत्य में होता है और सांसारिक प्रेम जब संसार के परे तक जाने की सत्ता रख लेता है तो जीवन सही अर्थों में अपने को अभिव्यक्त करता है। सांसारिक प्रेम केवल संसार में अनुरक्ति दिखाता है पर जब आत्मिक धरातल पर प्रेम का अर्थ समझने की कोशिश करते हैं तो दुनिया के सारे व्यवहार अधूरे से लगते हैं। इस अर्थ में प्रेम मुक्त करता है। हर तरह की विशेष स्थिति से बाहर निकल कर सहज अवस्था में आना ही प्रेम में डूबना होता है। प्रेम में जितनी भी बाहरी दीवारें होती हैं सब टूट जाती हैं। प्रेम में आकर आदमी अपने बाहरी आवरण और छद्म को उतार फेंकता है और अपने मूल स्वरूप को जानने का जतन करना सीखता है। प्रेम में सारा अहं विगलित हो जाता है । अंत में बस मानुष मन ही बचता है। यह मानुष मन ही रचना तंत्र, जीवन तंत्र और मानुष तंत्र के बीच यात्रा करता है। सच में यह जो जीवन यात्रा है वह रहस्य से परिपूर्ण होती है, जीवन का प्रकाश कहां से कैसे आ रहा है और आदमी कहां जायेगा ? उसका प्राप्त क्या होगा सब आश्चर्य की तरह होता है। अचानक से दुनिया चमकते हुए सामने ही आ जाती है, हो सकता है कि जिस संसार को आप खोज रहे हों, जिस दुकान का अर्थ जानना चाहते हो वह कहीं से दिखे ही नहीं और जब दुनिया अपना अर्थ प्रकाशित करती है तो सब कुछ सहज ही प्रकाशमान होकर सामने आ ही जाता है। दुनिया को समझना कभी आसान नहीं होता पर इस कठिन और संघर्ष भरी दुनिया में ही जीवन खिल रहा होता है, यहां से दुनिया अपने ही ढ़ंग से चमकती हुई दिखती रहती है। जब यात्रा में होते हैं, दुर्गम इलाकों में होते हैं तो कठिन परिस्थितियां आप से आप संवारने का काम करती है । आप अपने सारे अवरोध को पार कर मन की मुक्त दशा की यात्रा करते हैं। देह, मन और पृथ्वी सब एक मनोभूमि पर जुड़कर हमें संभालने का काम करते हैं। प्रेम में सबसे पहले अहंकार टूटता है, जहां ‘मैं’ है वहां प्रेम नहीं है, वहां जीवन भी नहीं है। जीवन जब अपने ही प्रकाश से चमकने लगता है तो मान लेना चाहिए कि जीवन प्रेम से प्रकाशित हो रहा है। प्रेम अर्थ है और प्रेम ही जीवन है जहां प्रेम नहीं है वहां हिंसा है, क्रूरता है , अहंकार का राज है और ऐसी दुनिया जीने लायक नहीं होती यहां बस अंह का राज होता है। जहां प्रेम न होकर केवल दिखावा होता है। प्रेम तो बस सहज रूप में अपने को प्रकट करने की कला है। जब आप अपने रूप को पूरा पूरा समझने की कोशिश करते हैं , जब संसार को समझने लगते हैं और संसार के साथ संवाद की स्थिति में होते हैं तो आप स्वाभाविक रूप से प्रेम की अवस्था में होते हैं। प्रेम में आदमी संसार में होते हुए भी संसार से बाहर होता है और इस दुनिया के रिश्ते नाते सब अपर्याप्त लगने लगते हैं और आदमी इस तरह से सोचने लगता है कि वह तो इस दुनिया का है ही नहीं, यह प्रेम की सत्ता ही है कि वह हर अभाव में, हर हाल में जीवन के सत्व को जीना सीख गया जब हम इस संसार में रहते हैं तो इस दुनिया से बात करते हैं इस संसार की एक एक गतिविधि हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रेम का प्रकाश मनुष्य को इस दुनिया को समझने और जीने के लिए कहता है। जो कुछ भी खिल रहा है, जो दिख रहा है, जो सांसारिक है वह सब प्रेम की सत्ता का ही एक रूप है। प्रेम अपनी पूर्ण दशा में जड़ पदार्थ से लेकर चेतन सत्ता तक एक साथ संवाद करते चलता है। मनुष्य की हर गतिविधि में प्रेम का तत्व शामिल रहता है। पत्तियों का हिलना डुलना, हवा का सरसराना सब कुछ जो व्यक्त हो रहा है जो दृश्य है वह सब प्रेम का ही रूपक है। प्रेम से परे यहां कुछ भी नहीं है पर यह प्रेम का तत्व, प्रेम की दशा को हर कोई समझ नहीं पाता अक्सर प्रेम दशा को मोह दशा में ही लोग देखते हैं जबकि यह सच है कि प्रेम मोह नहीं है । जो मोह में पड़ गया वह किसी काम का नहीं रहता । मोह में आदमी अंधा हो जाता है उसे कोई और नहीं दिखता, इस दशा में वह केवल खुद को देखता है, खुद ही खुश हो जाना चाहता है जबकि जो केवल खुद की खुशी के लिए काम करेगा वह संसार को भला कैसे समझ पायेगा , संसार तो पूरा का पूरा उसके यहां आ ही नहीं पायेगा। वह तो बस उसी दुनिया को देखने की कोशिश करता है जिसमें सिर्फ उसकी खुशी छिपी होती है, सीधी सी बात है कि जब आप किसी को खुशी दे नहीं सकते तो आपके पास खुशी आयेगी कहां से और चलिए मान लेते हैं कि कहीं से कोई खुशी आ भी गई तो वह स्थाई नहीं होगी । स्थाई खुशी तो तभी मिल पाती है जब हमारे पास औरों के लिए भी खुशी हो, जब हम औरों को अच्छे से रहते देख सकें तो यह दुनिया सुंदर ढ़ंग से सामने होती है। इस दुनिया को समझ लेना बहुत बड़ी उपलब्धि है और यह तभी संभव हो पाता है जब आपके कदम में औरों के लिए हित का भाव होता है। प्रेम एक तरह की साधना है एक तरह से तन्मयता का नाम है । प्रेम की दशा में डूबे आदमी को कुछ नहीं दिखता। अक्सर पढ़ने सुनने में यह आता है कि इनके रिश्ते में दरार आ गई या रिश्ता सही ढ़ंग से नहीं चल रहा है और आदमी कह रहा है कि वह प्रेम में है तो बात सरासर ग़लत लगती है भला प्रेम के भीतर इतनी टूट फूट क्यों और कैसे हो रही है ? तो इस बात का सीधा सा उत्तर यह है कि यहां प्रेम से कहीं ज्यादा अधिकार भाव है। अधिकार भाव टिकता नहीं है। यहां प्रेम न होकर केवल अधिकार की भावना और अंहकार का साम्राज्य है ऐसे में कोई किसी से भला कैसे प्रेम कर सकता यहां तो केवल दिखाने भर के लिए नाम के रिश्ते होते हैं और थोड़ा सा भी तनाव आते तिनके की तरह बिखर जाते हैं पर प्रेम की दुनिया में कुछ भी किनारे नहीं होता , कुछ भी खारिज नहीं होता बल्कि यहां तो एक दूसरे के प्रति आदर और सम्मान का ही भाव होता है, इसके अलावा इनके लिए दुनिया का कोई और रूप किसी काम का नहीं है। प्रेम एक जीवन दशा और जीवन दर्शन है । प्रेम में होना पूरी तरह से सांसारिक होना होता है। प्रेम में संसार को जीना होता है, जब आप संसार में होते हैं जब संसार को जीते हैं, जब मानवीय मूल्यों को लेकर चलते हैं तो आप सबसे ज्यादा प्रेम में होते हैं। प्रेम की तन्मयता जीवन की शाश्वत स्वीकृति का नाम है। प्रेम अपने आप की दुनिया से, अपनी निज सत्ता से बाहर निकलने का नाम है। जब हम किसी और को स्वीकार करते हैं, जब अपनी दुनिया में किसी और के होने की जगह बनाते हैं तो यह सब प्रेम के कारण ही संभव हो पाता है। प्रेम में ही दुनिया अर्थ से भरती है, प्रेम न हो तो इस संसार को हम देख ही नहीं पाते, एक क्षण के लिए भी दुनिया हमें किसी काम की नहीं लगती पर जब हम इस संसार को अनुभूति में लाते हैं, जब संसार को जीने की कोशिश करते हैं तो सब कुछ अच्छा लगने लगता है। यहां स्वाभाविक रूप से प्रेम को ही जीते हैं । प्रेम में पूरा संसार ही आंखों में घूमता सा दिख रहा होता है। यहां से हम दुनिया को देखना सीखते हैं, यह सीख पाना ही जिंदगी के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। जो संसार है उसे देखना सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। जहां संसार का साक्षात्कार है वहां जीवन संसार की हर धड़कन प्रेम के स्पंदन से प्रस्फुटित होती है। संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे आप दूर भागते चलें। बल्कि संसार को जीने की दिशा में हमें चलने की जरूरत है। प्रेम जीवन की शक्ति है और जीवन की भक्ति भी है। जहां प्रेम नहीं है वहां तय मानिए कि कुछ नहीं है। प्रेम में आदमी एक दूसरे को स्वीकार करता है। इस दुनिया में किसी तरह के लोभ लालच के लिए जगह नहीं है न ही किसी तरह की कड़वाहट को यहां जगह प्रदान की जाती है। प्रेम के स्वीकार भाव में ही पूरी दुनिया की गति दिखाई पड़ती है। प्रेम पूर्णता है और जीवन का वह सहज प्रकाश है जिसके लिए कही और जाने की जरूरत नहीं पड़ती। यहीं बैठे बैठे पूरी दुनिया का साक्षात्कार जिस शक्ति से होता है वह मनुष्य का मनुष्य के प्रति प्रेम ही है। प्रेम एक दर्शन है और मानव की पूर्ण दशा का नाम है।