
-Hafeez Kidwai
कहते हैं ज़िन्दगी आज़माइश लेती है मगर कुछ लोगों की तो मौत के बाद भी आज़माइश होती है । दुनिया जानना चाहती है कि बताओ,तुम्हारे बर्दाश्त की क़ुव्वत क्या है । वह इम्तेहान लेती है, उनसे जिन्हें सिर्फ़ एक अदद सुक़ून चाहिए। मगर यह सुक़ून कहाँ,यह जो बेसुकूनी है, इसका ही दूसरा नाम है मीर तकी मीर ।
आज की ही रात को लखनऊ में मीर तकी मीर ने आख़री साँस ली थी। आज रात गुज़रे तो अगले सबेरे अहले लखनऊ को पता चला की मीर नही रहे । लखनऊ,जिसने उजड़ी दिल्ली से सुक़ून की तलाश में आए मीर को,अपने पहलू में जगह दी। वह मीर जिसे लखनऊ भाया तो नही मगर जिसने आखरी सांस तक छत और उनके दिल के फफोलो से उपजी शायरी को बर्दाश्त किया,वह यहीं रहे । लखनऊ की आवाम और उनके चाहने वालों ने कब्रिस्तान भीम का अखाड़ा में मीर तकी मीर को दफ़नाया ।
आप ज़ुल्म देखिये,जब आगरे में मीर के बचपन ने खिलखिलाना ही शुरू किया था,तो बाप का साया सर से उजड़ गया । सौतेले भाइयों ने तबियत से रिश्ता निभाया की उन्हें आगरा भी अपना न लगा । भागते भागते वह लड़का दिल्ली आया । कुछ दूर के रिश्तेदारों ने छत दी,तो उन्होंने भी तबियत से अज़ीयत दी । एक तरफ दिल बेचैन,दूसरी तरफ सुक़ून का एक कोना नही,जुगाड़ लगाकर किसी बड़े घर मे नौकरी की,सोचा कुछ तो सुक़ून आएगा ।
मगर जिसने दिल्ली का सुक़ून छीन लिया,वह मीर को क्यों बख्शता,नादिर शाह का हमला हुआ,दिल्ली चीख उठी । गली गली खून से भीग गई । हर तरफ रोना,हर तरफ मायूसी,हर तरफ आंसू और इनके बीच बेरोजगार,बेसहारा खड़ा अपने मालिक के पूरे खानदान की टुकड़ो टुकड़ों लाशों के सामने बिखरी हुई ज़िन्दगी को एक टुक देखता मीर ।
फिर उठ गया दाना पानी,चले लखनऊ की तरफ़ । वह लखनऊ जिसनेपहले तो उनके आने की तबियत से तफ़रीह उड़ाई मगर जैसे ही शमा के सामने मीर ने अल्फ़ाज़ की गिरह बांधी। हर तरफ एक खामोशी तैर गई । लखनऊ,जो इल्म ओ अदब का गहवारा था,उसने मीर के लिए दरवाज़े खोल दिये । ज़िन्दगी ने करवट ली,एक से एक कलाम दर्ज होने लगे । तारीख़ पीले पन्नो में सियाही पीकर ज़िंदा हो उठी,मगर लखनऊ की सियासत और दरबारियों की चालों ने मीर के दिल को खट्टा कर दिया ।
मीर रह तो यहीं गए मगर दिल जाने कहाँ तड़पता फिरता । फिर वह एक काली रात आई,जो सोते हुए लखनऊ के सिरहाने से मीर को उठा ले गई । सितम देखिये, जिस मीर को नादिर शाह ने दर बदर कर दिया,उस मीर की कब्र पर लोहे के बड़े बड़े इंजन दौड़ाए गए । जहाँ कब्र थी,वहां अंग्रेजों ने रेलवे लाइन बिछाने का काम शुरू कर दिया । कब्रिस्तान भीम का अखाड़ा,सिटी स्टेशन की ज़द में आ गया और मीर की कब्र पर मनो मिट्टी डालकर,उसपर रेल गाड़ी दौड़ा दी गई। अब उसपर शोर करती हुई ट्रेन दौड़ती हैं और नीचे मरने के बाद भी मीर इंतेज़ार करते हैं एक अदद सुक़ून का…
बाद के दिनों में वहीं पास में “निशान ए मीर” का एक पत्थर लगा दिया गया । हम वहीं जाते हैं, आज के रोज़ और बैठते हैं, मीर से बातें करते हैं, की शायद ही करार आ जाए । मीर शिकायत नही करते,बस सूखी आंखों से कह देते हैं । ऐसा ज़ुल्म! पहले तो लखनऊ फातिहा पढ़ने आ जाता था मेरी मज़ार पर,अब तो उन्हें हम ही याद नही,मेरे दामन में दिल्ली दर्ज करके,लखनऊ ने यूँ मुँह मोड़ लिया ।
मीर की मज़ार की असली तस्वीरें नीचे हैं और निशान ए मीर के साथ हम,हम सबकी यही क़िस्मत है । लखनऊ की गलियों में बेचैन बेसुकून फिरते रहें,कब ज़िन्दगी में कोई नादिर शाह बनकर ज़हर घोल दे । तो कब कोई तरक्की के नाम पर सीने में लोहा पिघला के डाल दे,मगर तुम्हे तो ज़िन्दा रहना है । मीर आज आंख बंद करके चले तो गए मगर मीर हमेशा रहेंगे,वह जो हमें रोज़ के जज़्बात को बतलाने के अल्फ़ाज़ पिरोकर दे गया,
आज उस मीर को याद करने का दिन है….
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था
(फोटो एवं आलेख हफीज किदवई की फेसबुक वॉल से साभार)