
-ए एच ज़ैदी-

वसीम अहमद कोटा के ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने न केवल अपना जीवन विश्व विख्यात कोटा-बूंदी चित्रकला शैली को समर्पित कर दिया बल्कि उस्तादों से सीखी इस कला को अपनी अगली पीढी को भी सौंपने में जुटे हैं। वसीम अहमद के बेटे दिलदार भी अपने पिता के पद चिन्हों पर चलते हुए कोटा-बूंदी चित्र शैली में पारंगत हो रहे हैं और इस शैली को बचाने में अपने वालिद के मददगार बने हुए हैं। मोहम्मद वसीम ने कोटा कलम के दिग्गज कलाकार मोहम्मद उस्मान से गुर सीखे थे और अपने उस्ताद की कला को आगे बढाया अब अपने बेटे दिलदार के साथ मिलकर न केवल इस कला के प्रति समर्पित हैं बल्कि पुरानी पेंटिंग को मूल स्वरुप प्रदान करते हैं। इस कार्य को करने वाले बहुत कम कलाकार बचे हैं।

वसीम अहमद जब चार साल के थे तभी उनके पिता शमीम अहमद की मृत्यु हो गई। ऐसे में उनका लालन पालन दादा ए के असलम साहब के निर्देशन में हुआ। असलम साहब झाला हाउस में प्रारुपकार के पद पर कार्यरत थे। वह खुद एक स्टेज डामा आर्टिस्ट के साथ पोट्रेट आर्टिस्ट भी थे। शमीम का बचपन का ज्यादा वक्त दादा के साथ ही बीता। उन्होंने अपने दादा असलम साहब को फिल्म अभिनेत्री साधना की पेंटिंग बनाते देख कला के प्रति रुचि जागृत हुई। वह खुद स्कूल की कॉपी में स्कैच बनाने लगे। उनकी कला के प्रति इस रुचि को उनके चाचा मोहम्मद शाहिद ने देखा। मोहम्मद शाहिद खुद भी एक केलीग्राफर और एक आर्टिस्ट थे। उन्होंने शमीम को अपने मित्र मोहम्मद उस्मान साहब काम सीखने भेज दिया।

मोहम्मद उस्मान कोटा-बूंदी शैली के कलाकार लुकमान साहब के वालिद हैं। उस्मान साहब सरल व्यक्तित्व के साथ कला प्रेमी और पारंगत चित्रकार थे। ऐसे में शमीम के कला जगत में सफर की शुरुआत हुई। उन्होंने लुकमान के पास शुरुआत में काम सीखा और उस्मान जी के साथ मंदिरों में चित्रकारी के काम के लिए जाने लगे। इसमें कंसुआं मंदिर, रामपुरा जैन मंदिर, कोटा गढ पैलेस, पालकिया हवेली, नाका चुंगी गेट, अभेडा महल, रामपुरा में मौजूद गेट इत्यादी शामिल हैं। बाद में उन्होंने कोटा बूंदी शैली की बारिकियों और रंगों की जानकारी लुकमान जी से सीखी।
उन्होंने 27 साल की उम्र तक लुकमान जी के निर्देशन में काम किया और कोटा बूंदी शैली की पेंटिंग के पारंगत कलाकार बने। उन्होंने 2008 से खुद का काम शुरु किया। हालांकि शुरुआत में उन्हें मटीरियल जुटाने में काफी जद्दोजहद करनी पडी। दादा ए के असलम ने उनकी इसमें मदद की। शमीम के चित्रकारी के पूरे सफर में दादा का अहम किरदार रहा।

लुकमान जी ने बडे प्यार से उन्हें कोटा बूंदी शैली के साथ ही साथ जीवन यापन का सही मार्ग भी दिखाया। इसी प्रेरणा से वह 2008 से लेकर आज तक अपना टाइम कोटा बूंदी शैली को बचाने में दे रहे हैं। उन्होंने रामपुरा जैन मंदिर, कोटा गढ पैलेस, बारां रेलवे स्टेशन, रामपुरा गेट, कंसुआ जैन मंदिर, बोहरों की मस्जिद, एयरोडाम पुलिया इत्यादी पर चित्रकारी का काम किया। लेकिन अपना ज्यादातर वक्त कागज पर पेंटिंग बनाने पर दिया। और आज भी कोटा बूंदी शैली को बचाए हुए हैं। अब बेटे को भी गुर सिखा रहे हैं।
(लेखक नेचर, टूरिज्म प्रमोटर तथा कुशल फोटोग्राफर हैं)