कृष्ण बलदेव हाडा

कोटा। राजस्थान के हाडोती अंचल में आज श्रावणी अमावस्या का पर्व पूरी श्रद्धा के साथ मनाया गया। खासतौर से आज ग्रामीण अंचल में श्रावणी अमावस्या पर कई धार्मिक आयोजन किए गए क्योंकि श्रावण के इस अमावस्या पर हाडोती में भगवान शिव की अाराधना का विशेष महत्व रहता है आैर अच्छी फ़सल की कामना में भगवान शिव की स्तुति किये जाने से आज शिवालयों में खूब धूमधाम रही। श्रद्धालुआें ने नदियों-तालाबों में स्नान कर पूजा-अर्चना की। ग्रामीण हलकों में लोगों ने कन्याअों को भोजन करवाया।वैसे भी सावन के मौसम में जब बरसात का दौर शुरू हो जाने के बाद शादियों जैसे सामाजिक आयोजनों पर विराम लग जाता है तो यही मनभावन सावन अपनी अगुवाई में बारिश की झमाझम के बीच सज-संवर कर इठलात-खिलखिलाते सामने आता है। सावन शुरू होते ही महिलाओं की अपनी तैयारी शुरू हो जाती है। सावन के माह में व्रत, पूजा तो अभी जगह है ही लेकिन इस माह में सजने-सवरने की अलग ही तैयारी रहती है। इस मौसम में चारों और हरियाली का माहौल होने के कारण महिलाएं अपने लिये खास श्रंगार करने से निश्चित ही कैसे पीछे रह सकती है?

 झूले ड़ालने की पुरानी परंपरा

सावन का महीना यानी हरी चूड़ियां, मेहंदी के साथ लहरिया चूनड़ी-साड़ी पहनने का एक रिवाज बन गया है। वैसे भी राजस्थान की संस्कृति में लहरिये का विशेष महत्व रहा है। लहरिये को सौभाग्य और सुकून का प्रतीक माना जाता है और इसमें भी सावन में पहनी जाने वाले लहरिये में हरा रंग बहुत शुभ माना जाता है। इसके अतिरिक्त राजस्थान में पंचरंगी लहरिये की तो उसकी खासियतों के साथ अपना अलग महत्व है। सावन की शुरुआत से ही पूरे राजस्थान में लहरिये की मांग बढ़ जाती है। सावन के इस मौसम में समूचे राजस्थान में झूले ड़ालने की पुरानी परंपरा रही है और कोटा संभाग का हाडोती अंचल भी इस परंपरा से अछूता नहीं है जहां खासतौर से ग्रामीण इलाकों में मानसून पूर्व की रिमझिम के साथ ही सावन के झूले डालना शुरू हो जाते हैं और मानसून की जोरदार बौछौरो से महिलाएं खासतौर से किशोरियों और युवतियां पारंपरिक प्रचलित गीत गाते हुए इन झूलों पर झूलती नजर आती है। नये रंग बिरंगे कपड़े पहने और श्रंगार कर सजी-धजी यह बालायें सामूहिक रूप से जब सावन के मौसम के गीत मधुर स्वर में गाते हुए झूला झूलती है तो नजारा ही कुछ और होता है। हालांकि शहरी इलाकों में यह परंपरा धीरे-धीरे टूटती जा रही है।

 त्यौहार का भौगोलिक दृष्टि से अपना अलग महत्व
राजस्थान में हर त्यौहार का भौगोलिक दृष्टि से अपना अलग महत्व है और उसी के अनुरुप त्यौहार मनाने की परंपरा भी रही है। इलाके के अनुसार किसी भी त्योहार के महत्व को समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए जैसे गणगौर का त्योहार तो पूरे राजस्थान की महिलाएं पारंपरिक तरीके से मनाती है लेकिन गणगौर पर जैसी धूम जयपुर में होती है वैसी धूम अन्य जगहों पर देखने को नहीं मिलती और यह परंपरा देश के आजाद होने से पहले रियासतकाल से ही चली आ रही है। ठीक इसी तरह कजरी तीज के मौके पर कोटा संभाग के बूंदी में पारंपरिक तरीके से मनाने और महिलाओं जो उत्साह देखने को मिलता है, वह शायद राजस्थान के अन्य संभागों में नहीं देखा जा सकता है।
अगले माह 14 अगस्त को आ रही कजरी तीज पर दो साल बाद इस साल बूंदी में खास धूमधाम देखने को मिल सकती है क्योंकि वैश्विक महामारी कोविड-19 का दौर कम हो जाने के बाद यह कजरी तीज आ रही है। कजरी तीज पर बूंदी में राजसी ठाठ बाट के कजरी माता की भव्य सवारी निकाली जाने की पुरानी परंपरा रही है और यहां मेला भी भरता है। इस बार भी यह सवारी निकालने व मेला भरने की उम्मीद की जा रही है।

डोल ग्यारस का मेला

हाडोती अंचल में मानसून के दौर में सवारी निकालने और मेले आयोजित करने की इसी परंपरा के तहत बारां नगर में जलझूलनी एकादशी के अवसर पर डोल ग्यारस का मेला भरता है, जिसमें बारां जिले के ही नहीं बल्कि पूरे कोटा संभाग के लोग बड़े उत्साह के साथ भाग लेते हैं। इसके अलावा भाई-बहन के पवित्र प्यार का प्रतीक राखी का त्योहार भी इसी मानसून के मौसम में आता है और इस दिन भी महिलाओं के लिए सजने-सवरने का खास मौका होता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)

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