
-विजय बहादुर सिंह-
इन दिनों तुलसीदास फिर बहुत ज्यादा चर्चा में हैं। वैसे जब वे चर्चा में नहीं रहते तब भी लोकजीवन में किसी प्राणशक्ति की तरह बने रहते हैं। कथित ब्राह्मण और पिछड़े वर्ग के ढेर सारे पढ़े लिखे लोग,या कुछ अन्य लोग जो हिन्दू नहीं हैं,इस किताब के इर्द गिर्द घूमते टहलते देखे गए हैं। कारण,इसकी काव्यगत कालजयिता तो है ही, इसके अवतारी नायक का वह जीवन है जो वन यात्रा में राक्षसों का संहार करता है, ऋषियों को प्रणाम निवेदित करता चलता है, केवट, अहिल्या, शबरी और किष्किंधा के लोगों के पास जा जा कर उनके सुख दुख को अपने सुख दुख के संसार में शामिल करता हैऔर ऐसी महामानवता का आचरण करता है कि उसका अनुभव करने वाले उसे ब्रह्म ही मान लेते हैं।
अयोध्या का राज सिंहासन भले ही उससे छूट गया पर चौदह सालों की अपनी तपस्या में उसने जिस लोक सिंहासन पर बैठ लोक चित्त पर राज किया ,वैसा तो हमारे शासकों में एक भी न कर सका। जाति विभेद अगर उसमें होता तो वह केवट को गले क्यों लगाता ?शबरी के जूठे बेर क्यों खाता? आम कथित भद्र जनों जैसा सोचता तो लोक परित्यक्ता अहिल्या के पास जाकर उसे पुन:मुख्य जीवन धारा में क्यों लाता?
आज के हमारे सवर्ण और गैर या दलित राजनेताओं में एक का भी आचरण ऐसा कहाँ है?कौन बताए कि न अब वैसे लोक नायक रहे,न लोक समाज।धर्मवीर भारती नामक कवि ने ठीक ही लिखा है–
हम सब के दामन में दाग,
हम सब के माथे पर शर्म।
और दुष्यन्त कुमार ने लिखा—
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं
आदमी या तो जमानत पर रिहा हैं या फरार।
और हमारे जनजीवन में अग्निधर्मी चेतना की तरह व्याप्त शायर अदम गोंडवी ने राजनेताओं के चरित्र का बखान करते हुए यह कालजयी सत्य डंके की चोट लिख दिया—-
काजू भुने प्लेट में ह्विस्की गिलास में
उतरा है राम राज विधायक निवास में।
ऐसे राजनेताओं का समूह जो चौबीसों घंटे टुच्ची सत्ताओं के लिए के कोई भी धतकरम करने से बाज नहीं आता ,अगर लोकचित्त पर शासन करने वाले कवियों की किसी एक विवादित उक्ति पर,बगैर किसी प्रसंग और संदर्भ को समझे फतवे जारी करने लगता है,तब कभी यह क्यों नहीं सोच पाता कि जिस कवि और किताब पर वह इतना कुपित है ,पाँच छह सौ बरसों में उस किताब की भूमिका अगर रही तो क्या रही? माना कि वह ब्राह्मण था और ब्राह्मणवादी भी तो केवट, शबरी, वानर जाति और अहिल्या जैसी पत्थर बना दी गई लोकवहिष्कृत स्त्री को इतना सम्मान और प्यार क्यों दिलवाया? क्या कभी कोई शिक्षामंत्री हिन्दी की कोई दूसरी ऐसी कोई किताब हमें देगा जो सारे समाज में इतनी लोकप्रतिष्ठित हो?
हम मान लेते हैं कि तुलसी नामक यह कवि ब्राह्मण वादी और शूद्र,दलित और स्त्री विरोधी था तो फिर वह कवितावली में मंदिर के बजाय मस्जिद में सोने की आपबीती क्यों लिख रहा था?
क्यों यह लिख रहा था मेरे जमाने के लोगों! तुम मुझे जो मन मे आए कहो,मुझे धूत अवधूत, जुलहा , राजपूत जो चाहो कहो पर मैं तो अपनी ओर से उसी राम का गुलाम हूँ जो किसी जाति और वर्ण का नहीं, उस महामनुष्यता का है जिसका स्वप्न सभी सभ्यताएँ देखती आई हैं।
तुलसी इसी असाधारण इंसानी सपने के कवि हैं। यह वही सपना है जिसे कोई भी कवि देखता रहता है, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान। प्रेमचन्द इसी को आदमी का ईमान कहा करते थे। पर वे भी तो एक जमाने में ब्राह्मण विद्वेषी कहे गए।और हिन्दुओं का यह समाज तो गाँधी जैसे महामानव को भी कहाँ समझ पाया?
फिर राम और तुलसी को कितना समझ पाएगा? अब अगर दो चार दिन का कोई एक शिक्षामंत्री जिसे समाज में सबका वोट चाहिए और जो सबके पास आज नहीं कल यह भिखमंगई करने जाएगा तब वह अपने इस कहे का क्या जवाब देगा कि रामचरित मानस नफरत फैलाने वाला ग्रंथ है? क्या वह यह साबित कर पाएगा कि तुलसी अकेले ब्राह्मणों के कवि हैं?
क्या वे केवट ,शबरी,और अहिल्या विरोधी कवि हैं।क्या वे सीता,मन्दोदरी, कैकेयी विरोधी हैं?
वे महाकवि वाल्मीकि जिन्होंने अपनी रामकथा में सीता का निर्वासन और शंबूक वध दिखाया, अकबरकालीन संत तुलसी ने उस सब को अपने मानस में कोई जगह नहीं दी। लेकिन किस मानसिकता के चलते? इस पर कौन सोचेगा?कौन सोचेगा कि संस्कृत भाषा का इतना बड़ा ज्ञानी क्यों कर अवधी में राम कथा लिख रहा था?
इस सबका जवाब कौन देगा? क्या वे कुपढ़ अपढ़ लोग जो चौबीसों घंटे सिर्फ जातियों की ही राजनीति करते हैं और शासन पूरे समाज पर करना चाहते हैं?
(लोक माध्यम से साभार)