
-अमिता नीरव-

उन दिनों मकर संक्रांति पर पुराने उज्जैन का आसमान पतंगों से पटा रहता था। लड़के कई कई दिनों तक मकर संक्रांति की तैयारियां करते थे।
मांझा सूतना इसका सबसे अहम हिस्सा था। Amit Taksali Revisited (भाई) को पतंग का भूत सवार रहता था। पापा और उसके बीच लंबी टसल चलती थी। उसकी दो हुचका मांझे की मांग होती थी।
जैसा होता है माता पिता बारगेन करते ही करते हैं। तो पापा उसे एक हुचके के लिए मनाते थे। फिर उसे सौ पतंगें चाहिए होती थी, पापा उसे पचहत्तर पतंगों तक लेकर आते थे।
उस वक्त तक छोटे बड़ों का फर्क खत्म हो जाया करता था। अमूमन अपने खेल से बाहर किए गए बच्चों को बड़े लड़के मांझा सूतते हुए साथ ले लिया करते थे। सस्ता भी पड़ता था और काम भी बंट जाता था।
दो रात पहले सारे लड़के लड़कियां इकट्ठा होते और फिर बेकार पड़ी ट्यूबलाइट कूटने, सरेस उबालने फिर एक के बाद एक पतंगबाज का गट्टा सूतने का दौर चलता। साथ चलता, गप्पों और सेंव परमल फांकने का सिलसिला।
जब कभी डोर सूतने का मामला नहीं जमता तो भाई की जिद बरेली की डोर खरीदने की होती। भाई दो दिन तक सिर्फ सोने के लिए छत से उतरता था। मां उस दिन कुछ ज्यादा ही सख्त हो जातीं। बाकी दिन न नहाओ तो थोड़ा भुनभुनाती फिर चुप हो जाती।
उस दिन बहुत सुबह ही उनके नहाने की रट शुरू हो जाती। भाई को उन दिनों सपने भी पतंग के आया करते थे। ताऊजी ताइजी के साथ ही सोते थे तो ताऊजी सुबह बताया करते थे।
नींद में ही भाई हींचता और सै देता था। नींद में भी पतंग काट भी देता और कटवा भी लेता। चार दिन पहले से पतंग खरीद ली जाती और पचास पतंग संक्रांति के लिए जोते बांध कर अलग रख दी जाती थी। पतंग चिपकाने के लिए एक दिन पहले ही आटे को पानी में उबालकर पेस्ट बना लिया जाता।
तमाम पतंगों के नाम थे। पटियल, मांगभात, सिरकटा, तिरंगा, टुक्कल, ढग्गा, खरबूजा, चांदभात, आंखभात। मुझे खरबूजा बहुत पसंद थी तो मेरी फरमाइश वही होती थी।
मगर होता ये था कि ज्यादातर खरबूजा एक तरफ झुकने वाली निकल आती थी। ऐसी पतंगों को डोर की छोटी गुच्छी बनाकर एक तरफ काप पर बांध दी जाती ताकि संतुलन बना रहे। उस गुच्छी को खिरनी कहा जाता था। एक होती थी लिप्पुक पतंग, जिसके काप बहुत पतले होते थे।
सुबह जल्दी नहाकर खिचड़ी और तिल दान कर देने के मां के अनुशासन के चलते भाई कड़कड़ाती सर्दी में पांच बजे रजाई से निकल जाता। पौ फटने से पहले छत पर पहुंच जाता था।
उस दिन हर घर की छत पर लगभग पूरा परिवार पहुंच जाता था। बड़े बड़े लाउड स्पीकर पर गाने चलते और दोपहर होते होते पतंग की कमेंट्री होने लगती। साथ ही काउंटर कमेंट्री भी होती।
इस सबमें नानू भाई का पतंग प्रेम सबसे ऊपर था। जब मैं मिडिल स्कूल में थी वो कॉलेज के पहले साल में पहुंच गए थे। आम दिनों में काम से काम रखने वाले नानू भाई संक्रांति पर जैसे जिन्न हो जाते थे।
घर के सामने वाली गुवाड़ी में उनका घर था। उनके घर के पास वाले घर में भी चार लड़के थे। जिनमें से एक उनका हमउम्र था। उन घरों की ढलवां छतें टीन की थी। पड़ोसी घर के कोने में लगी सीढ़ी से दोनों छत पर जाते थे।
नानू भाई और वो पड़ोसी लड़का जहां से छत का ढाल शुरू होता वहां खड़े होकर पतंग उड़ाते देखे जाते थे। अभी मैं उन्हें पतंग उड़ाते देख रही होती कि नानू भाई पहले चिल्लाते, ‘ऐ वो चांद भात, चांद भात, चांद भात…।’
मैं आसमान की तरफ कटी पतंग के गिरने की दिशा का अनुमान लगा रही होती इतनी देर में नानू भाई लंबे बांस पर बबूल की टहनी बांधे गली में दौड़ लगाते नजर आते। और उनके पीछे होता पतंग लूटने वाले सारे लड़कों का हुजूम…।
गली के बाकी बच्चे जो पतंग को लूटने के लिए दौड़ लगा रहे होते, नानू भाई को देखते ही मायूसी से भर जाते। नानू भाई के होते कोई और पतंग को लूट पाए ऐसा कम ही होता था।
वो पलक झपकते ही अपना झाखड़ा लेकर वहां पहुंच जाते जहां पतंग कटकर गिरने वाली होती। अक्सर पतंग झाखड़े में फंसकर फट ही जाया करती थी। मगर साबुत पतंग वे किसी के हाथ आने नहीं देते थे।
मैं सोचती शायद उन्हें पतंग से ज्यादा पतंग को लूटने में मजा आया करता होगा। जब कभी वे कोई साबुत पतंग लूट भी लेते तो लूटने के लिए आने वाले लड़कों में सबसे छोटे बच्चे को थमा देते। कई बार लड़के उस बच्चे से पतंग छीन कर भाग जाते।और कई बार इस छीना झपटी में पतंग फट ही जाती।
मेरे कॉलेज से निकलते निकलते वे घर शिफ्ट कर गए। बाद में सरकारी स्कूल में टीचर बन गए और टीचर से ही शादी हो गई। पता नहीं उनका पतंगबाजी का शौक अब भी बचा हुआ है या नहीं?
कल्पना करती हूं कि वे अपने बच्चों को अपनी पतंगबाजी के जुनून के बारे बता रहे हैं।
शुभ उत्तरायण ❤️
(डॉ अमिता नीरव लेखिका, पत्रकार और डिज़िटल क्रिएटर हैं)