खिले-खिले खेत , खिला-खिला संसार। रंग उठा सरसों के पीले-पीले फूलों के साथ।।

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– विवेक कुमार मिश्र

vivek kumar mishra
विवेक कुमार मिश्र

पृथ्वी रंग, रस और गंध से अर्थवती हो गमकती रहती है । कहीं से कहीं हो आइए कैसा भी मौसम हो और कैसी भी दशा हो पृथ्वी पर कुछ न कुछ खिला ऐसा होता है कि अचानक से ही ध्यान खींच लेता है और इस क्रम में जो सामने संसार होता उसकी अनदेखी कोई भी क्यों न हो नहीं कर सकता । भीषण गर्मी हो , झुलस जाने की ही स्थितियां क्यों न हो प्रकृति इस मौसम में भी अपने अनूठे रूप रंग से अपनी ओर खींचती है और ठंडी हवाओं में अलग ढ़ंग से खींच लेती है । आग पर हथेली को सेंकते सेंकते संसार को और संसार के रंग को इस समय देखने लगते हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि कोई भी समय क्यों न हो संसार के रंगमंच पर इतना घटित होता रहता है कि बस आप देखते जाइए । जैसे जैसे संसार के करीब आते हैं संसार और और ही रंग में दिखने लगता है। संसार कहता है कि मुझे देखो , मुझे जी भर कर जी लो फिर ये मत कहना कि हमारे लिए तो संसार आया ही नहीं, सभी के लिए संसार की गतियां एक समान होती हैं यह आप पर है कि आप किस तरह से संसार को देखते और समझते हैं । यदि संसार को संसार के रंग में हमने देखना शुरु कर दिया तो तय मानिए कि हमने जिंदगी को एक खुशहाली के रंग में देख लिया । यह संसार हमेशा नये नये रंग में अपने को प्रस्तुत करता रहता है यह हम पर है कि हम संसार को किस अर्थ में और किस रंग में लेते हैं और कितना अपने जीवन में परिवर्तन लाते हैं । संसार को देखना जीना और जीवन के उत्सव में चलते जाना ही तो सांसारिकता है । यह सांसारिकता संसार संबंधों से ही आती है ।
संसार सौंदर्य के साथ जब अपने को अभिव्यक्त करता है तब कुछ और नहीं संस्कृति ही खिलती है । किसानी संस्कृति में सारा जीवन किसी न किसी उत्सव के साथ चलता रहता है और यह उत्सव कोई और नहीं उसके साथ प्रकृति ही मनाती है। खेत खलिहान और किसानी संस्कृति से जीवन श्रम का सौंदर्य उठता ही रहता है । यहां कुछ भी यूं ही नहीं होता सबके पीछे मानव शक्ति और श्रम का सौंदर्य खिल कर सामने आता है । प्रकृति के वैभव को देखना हो तो सहज रूप से अपनी आंखों को दूर दूर तक छितिज में टिका दीजिए । जब सौंदर्य का विधान देखना हो तो खेत के किनारे से उठते वैभव को भी देखना ही होता है । यहां से जीवन का जल ही नहीं सौंदर्य भी दिखता है ।
जल , जीवन , खेत-खलिहान और खुशहाली के बिम्ब को रचने का काम करती रहती हैं । यह सौंदर्य का पाठ सरसों के फूल के साथ एक अलग ही दुनिया लेकर आ जाता है । आप जब कहीं बाहर निकलते हैं तो छितिज ऐसे ही ध्यान खींच लेती है । सरसों के खिले खिले पीले पीले फूल मन पर इस तरह छा जाते हैं कि और कुछ देखने को जैसे बचता ही न हो । कच्च हरा सरसों, साग वाला सरसों और फिर पीले फूलों से लदा बहार वाला सरसों मन पर जीवन पर इस तरह छा जाता है कि सौंदर्य के नाम पर और क्या देखें । आंखें इस सौंदर्य को प्रकृति के विशाल आंगन में देखती रहती हैं । सौंदर्य खेत खलिहान से फूट फूट पड़ता है । आप किसी भी तरफ निकल जाएं इस समय सारे रास्ते इसी तरह खिले खिले दिखते हैं –
धरती पीले पीले फूलों से रंग जाती
चारों तरफ़ वासंती रंग इस तरह छा जाता है
कि कुछ और हो ही नहीं
पीताभ बांसती रंग में खिली दुनिया
एक अलग ही हवा के संग चल पड़ती है
यह हवा उत्साह रचती है
समय का उत्सव रचती है
और पृथ्वी का
अभिराम सौंदर्य रच देती है
×× ×× ××
आंखें खो जाती हैं
पीले पीताभ फूलों की आभा में
यहां आंखें रंग पर रंग को
लिए खिल जाती हैं
हरा कच्च सरसों
फिर पीले फूलों से रंगी धरती
और ऐसे दिखता है धरती ने
ओढ़ ली हो पीली चूनर
सरसों के खिले खिले फूल
रच और रंग देते हैं जीवन का आह्लाद ।
पृथ्वी पर एक अलग ही दुनिया सरसों के फूल के साथ आ जाती है यहां से धरती की महक और गमक साथ साथ महसूस की जा सकती है । जब इस तरह प्रकृति को फूलों को खेत खलिहान को पगडंडियों को नजदीक से देखते हैं तो संसार के बारे में एक अलग ही समझ बनती है । यहां मन हरा भरा सरसों के रंग में उत्साहित हो अपने भीतर आह्लाद का रंग भरता है और कहता है कि जीवन कहीं और नहीं प्रकृति के आंगन में ही खिलता है इसे भला छोड़कर कहां जा रहे हैं।

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विवेक
विवेक
4 months ago

शानदार