‘दोपहर का भोजन’ हाहाकरी अभाव और भूख के समक्ष परिवार बचाने की ज़िद भरी कहानी

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photo courtesy amazon.in

– विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

हिंदी कहानी को क्लासिक और अमर कहानी से अमरकांत ने न केवल एक नई चमक दी बल्कि उनकी कहानियों से क्या कुछ सीखना चाहिए यह भी ध्वनित होता रहा है । अमरकांत की कहानियां दिल और दिमाग पर एक साथ बजती हैं, आपको इतने गहरे स्तर पर आंदोलित करती हैं कि पाठक सीधे सीधे उस दृश्य संसार में पहुंच जाता है जहां उनका कहानीकार लेकर जाता है । अमरकांत को पढ़ना मूलतः भारत के गांव कस्बों के आम आदमी, गरीब और बेबस आदमी के उस पारिवारिक रिश्तों को देखना जीना है जहां सब एक दूसरे के लिए अपने अपने हिस्से को खर्च करते हुए घर परिवार की उस संरचना को रचते हैं जहां भरोसा सबसे बड़ा सूत्र है । अमरकांत की प्रसिद्ध कहानी ‘दोपहर का भोजन ‘ परिचित संसार की कथा है , दोपहर का समय है और परिवार को भोजन करना है । दोपहर में परिवार भोजन करता है यह एक सहज अवस्था होती है सामान्य सी बात लग सकती है पर दोपहर का भोजन कहानी में दोपहर सामान्य नहीं है उस तरह से भी नहीं है जैसी दोपहरी की हम सब कल्पना या अनुमान लगाया करते हैं । यहां दोपहर कुछ अलग ढ़ंग से आती है । सिद्धेश्वरी के घर आंगन में कुछ अलग ही… ‘सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उंगलियां या जमीन पर चलते चींटे चींटियों को देखने लगी । अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से प्यास लगी है । वह मतवाले की तरह उठी और गगरे से लोटा भर पानी लेकर गट गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह “हाय राम !”कह कर वहीं जमीन पर लेट गई।’
लगभग आधे घंटे तक वह उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई , आंखों को मल मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध टूटे खटोले पर सोए छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई । लड़का नंग धडंग पड़ा था । उसके गले तथा छाती की हड्डियां साफ साफ दिखाई देती थी । उसके हाथ पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हड़िया की तरह फूला हुआ था । उसका मुंह खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियां उड़ रही थीं । यह दृश्य चित्र उस भयावहता का है जिसकी छाया पूरे घर पर दिख रही है और जिसका सामना मां के रूप में सिद्धेश्वरी को करना है जिसके लिए किसी तरह का सुख नहीं है, दिन भर खटने के बीच अचानक से उसे याद आता है कि पानी पीना है और लोटा भर पानी पी लेती है। शायद यही एक चीज है जो उनके यहां इफरात है नहीं तो दोपहर के भोजन के दृश्य पूरी तरह से सच्चाई को खोलकर रखने के लिए तैयार बैठे हैं । बड़ा लड़का जो बीस साल के लगभग का है दूर गली से आता हुआ दिखता है उसके आने से पहले ही सिद्धेश्वरी चौके में जाकर भोजन लगा लाती है और भोजन क्या है थाली में देख लें दो रोटी, पानी भरी दाल जिसमें दाल कम पानी ज्यादा है और चने की झोल वाली सब्जी और इसे खाने के अभ्यस्त घर के सदस्य । बड़ा बेटा भी बार बार यही कहता है कि पेट भरा हुआ है खाया नहीं जा रहा है और मां पूछती ही रहती है कि क्या और रोटी लाएं । नहीं नहीं करते बेटा पनियायी दाल पी रहा है और रोटी को चुभला रहा है, इसी तरह का दूसरा दृश्य भी तब बनता है जब मंझला बेटा आता है उसे भी वही रोटी पानी भरी दाल और सब्जी मिलती है बीच बीच में मां बड़े बेटे की नौकरी मिलने की बात करती है , बडे बेटे से मंझले और छोटे बेटे की तारीफ करती है तो पिता से बड़े बेटे की तारीफ करती है कि जल्द ही उसकी नौकरी लग जायेगी फिर पिताजी को काम नहीं करने देगा और कहेगा कि आराम से बैठिए। छोटे भाइयों को पढ़ायेगा और उन पर जान छिड़कता है । इस तरह से परिवार में सिद्धेश्वरी जी एक संतुलन बनाने का काम करती रहती हैं और पिता की क्या स्थिति है यह भी किसी से छिपी नहीं है । कहानीकार अमरकांत दिखलाते हैं कि पिता की उम्र पैंतालीस की है पर लगते पचपन के हैं । गाल पिचके हुए हैं हाथ पांव झूलते से दिखते हैं ।
बड़ा बेटा रामचंद्र, मंझला बेटा मोहन खा चुके हैं और सब बाबूजी के और छोटे भाई प्रमोद के खाने की पूछते हैं । दोपहर का भोजन है पर गरीबी और हालात कुछ इस तरह से बनते हैं कि एक साथ कोई नहीं खाता सब एक एक कर खाते जा रहे हैं और अगले की चिंता में पेट का बड़ा हिस्सा पानी से भर रहे हैं, उस पानी में दाल का भी कुछ हिस्सा है जिससे इनकी दुनिया बची रहे।
इस दोपहर के भोजन का दृश्य कुछ यों बनता है – ” मोहन कटोरे को मुंह में लगाकर सुड़ सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिकाप्रसाद जूतों को खस कस घसीटते हुए आए और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ गए। …दो रोटियां, कटोरा भर दाल तथा चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिकाप्रसाद पीढ़े पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक एक ग्रास को इस तरह चुभला रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है । उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष की थी पर लगते पचपन के थे । शरीर का चमड़ा झुलने लगा था, गंजी खोपड़ी आइने की भांति चमक रही थी । गंदी धोती के उपर अपेक्षाकृत साफ बनियान तार तार लटक रही थी ।
मुंशीजी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोड़ा सुड़कते हुए पूछा, बड़का दिखाई नहीं दे रहा ! सिद्धेश्वरी पंखे को थोड़ा तेज घुमाती हुई बोली अभी अभी खाकर काम पर गया है । कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जायेगी । हमेशा बाबूजी बाबूजी किए रहता है । बोला बाबूजी देवता के समान हैं। ”
अमरकांत की यह कहानी दोपहर का भोजन मुंशीजी, सिद्धेश्वरी और तीन बेटों की वह कहानी है जिसमें घर में जो सदस्य हैं, एक दूसरे को बहुत प्यार और ख्याल करते हैं पर काम धाम और नौकरी न होने के कारण असाहयता की उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जब सब एक दूसरे की उन्नति और तरक्की की बस कामना करते रहते हैं और अपने अपने हिस्से की रोटी को छोड़कर पानी भरी दाल को सुड़कते हुए जीवन और समय काट रहे हैं । अंतिम दृश्य इस कहानी की उस भयावहता को उस सच को सामने रख देता है जिससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है यह दृश्य यों है – ” सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था । आंगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टंगी थी। जिसमें कई पैबंद लगे थे । दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था । बाहर की कोठरी में मुंशीजी औंधे मुंह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे जैसे देढ़ महीने पहले पूर्व मकान किराया नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छंटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो! …यह कहानी उस सच को व्यक्त करती है जिसमें गरीबी का केवल हाहाकार भर नहीं है बल्कि पूरा परिवार मिलकर उस स्थिति से संघर्ष कर रहा है इस संघर्ष में माता पिता और तीनों भाई हैं । अमरकांत ने कहानी को एक ऐसी सिद्धि दी है कि जिसमें हम अपनी परछाई भी देख लें और वह सच भी देख लें जो कहानीकार दिखाना चाहता है । ग़रीबी पूरे परिवेश पर ऐसे हावी है कि उससे निकलने के लिए जो भी सपने बुने जाते हैं वे बस सपने भर ही रह जाते हैं भूखे पेट भला सपने भी कैसे पाले जा सकते हैं।
दोपहर का भोजन कहानी निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के उस सच को सामने लाने का साहस है जहां भरपेट रोटी नहीं है पानी भरे दाल में संतुष्टि देखी जा रही है और सब एक दूसरे के लिए अपने हिस्से का त्याग करते हुए परिवार को बचाने में लगे हैं। यह कहानी भूख की पीड़ा, अभाव के बीच परिवार को बचाने की ज़िद की कहानी है। सिद्धेश्वरी जी के संघर्ष में भारतीय माताओं का त्याग है। परिवार का हर सदस्य दोपहर का भोजन पा ले यह चिंता ही सिद्धेश्वरी के माथे पर लकीर बन खींची हुई है । यहां त्याग है, चिंता है, संघर्ष है और इन सबके उपर परिवार का हर सदस्य एक दूसरे के लिए जी रहा है । यह कहानी अभावों के बीच माता-पिता और तीन बेटों के जीने की उस संघर्ष मय स्थिति की महागाथा है जो दोपहर के भोजन पर ही दृश्य संसार का विषय बनती है और इस तरह से मानव मन को संघर्ष का एक ऐसा पथ भी देती है कि हालात चाहे जितने खराब हों जिंदगी और जीवन से बढ़कर कुछ नहीं है । जीना है और अपनी शर्तों पर जीना है भले पनियाये दाल पीकर जिंदगी क्यों न काटनी पड़े पर जो संघर्ष और स्वाभिमान के पथ पर चलता है वह झुकना और गिरना नहीं जानता । न ही सफलता का कोई शार्टकट अपनाता। वह हंसी खुशी अपने असहाय संघर्ष में भी जीवन जीने की ज़िद में सिद्धेश्वरी की तरह आगे बढ़ता है। अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन एक अमर क्लासिक कहानी है ।

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