
-डॉ विवेक कुमार मिश्र-

स्वीकार
स्वीकारना सामाजिक हो जाना होता
स्वीकार में कितना कुछ समाया होता कि
जो जैसा है जिस तरह है उसे स्वीकार लेना
यह स्वीकारना एक तरह का बड़प्पन है
अन्य को अपने भीतर समाहित कर लेना
इसीलिए जो स्वीकार करता चलता
उसके यहां से कोई भी नहीं जाता
कोई भी नहीं हटता
सबके साथ वह मैदान में डटा रहता
इस क्रम में सभ्यता का पाठ
कुछ इस तरह शुरू हो जाता कि
पूरी दुनिया अपने जैसी लगने लगती
अपनी दुनिया से अपने को क्या हटाना
सबको साथ लेते हुए
जिंदगी की इबारत लिखते चलते
कि यहीं से स्वीकार पथ पर चलते चलते
जी लेंगे संसार और संस्कृति के किस्से कहानी
यहां से कुछ भी नहीं हटता सब एक भाव तंत्र में
जुड़ जाते हैं जहां न होने में भी होना ज्यादा होता
कुछ भी क्यों न हो पर स्वीकार के भाव से
बाहर जाने की जरूरत नहीं है
कहीं से किसी को नहीं हटाना
हटाना एक असामाजिक कार्य है
कहीं से किसी को हटाते हम स्वयं अपने स्थान से
अपने आप से हट जाते हैं
स्वयं से हट जाना एक अच्छी क्रिया हो सकती है
पर किसी को किसी के द्वारा हटाना
मनुष्यता से बेदखल हो जाना है
किसी को कहीं से भी हटाना खतरनाक है ।
(सह आचार्य हिंदी राजकीय कला महाविद्यालय कोटा)