“चुप्पियों का महावृत्तांत : विवेक कुमार मिश्र और अस्तित्व की हरी पृथ्वी”

whatsapp image 2025 09 24 at 19.52.27

-दिनेश नागर-

dinesh nagar
दिनेश नागर

समकालीन हिंदी साहित्य की सजीव धारा में विवेक कुमार मिश्र वह नाम है, जिसकी लेखनी मानवीय अस्तित्व, प्रकृति और परिवेश को एक साझा व्याकरण में बाँध देती है। उनके यहाँ कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि जीवन के गहन प्रश्नों से जूझने की भूमि है। यह भूमि ऐसी है जहाँ पेड़, धरती, मौन और मनुष्य—सभी एक ही वाक्य के शब्द बन जाते हैं।

मिश्र ने अस्तित्ववाद को निरर्थकता और अकेलेपन की पश्चिमी परिभाषाओं से मुक्त कर, उसे भारतीय चेतना की सामूहिकता में रूपांतरित किया है। उनके लिए अस्तित्व का अर्थ केवल ‘मैं’ होना नहीं, बल्कि ‘हम सब’ का एक साथ होना है। उनका काव्य-संग्रह ‘चुप्पियों के पथ पर’ इसी विचार का सशक्त उद्घोष है—जहाँ मौन भी बोलता है, और संसार स्वयं आकर अपने होने का साक्ष्य देता है।

whatsapp image 2025 09 24 at 19.52.29whatsapp image 2025 09 24 at 19.52.28whatsapp image 2025 09 24 at 19.52.27 (1)

उनकी रचनाओं में प्रकृति केवल दृश्य नहीं, बल्कि चरित्र है। ‘कुछ हो जाते पेड़ सा…’ में वृक्ष धैर्य और तप की प्रतिमूर्ति बनकर यह स्मरण कराते हैं कि मनुष्य की रेखा संघर्ष और सहनशीलता से ही पूर्ण होती है। वहीं ‘चाय जीवन और बातें’ तथा ‘फ़ुर्सतगंज वाली सुकून भरी चाय’ जैसी कृतियों में साधारण-सी चाय एक सांस्कृतिक प्रतीक में बदल जाती है—जहाँ संवाद, साझेदारी और आत्मीयता का स्वाद घुला हुआ है।

विवेक कुमार मिश्र का साहित्य किसी शोर का निर्माण नहीं करता। वह जीवन के सहज क्षणों से उठता है और धीरे-धीरे पाठक की चेतना में उतरकर उसे जगाता है। उनके चिंतन का मूल यह है कि मानवता से विमुख होकर अस्तित्व की खोज व्यर्थ है। मनुष्य तभी सम्पूर्ण है जब वह प्रकृति से जुड़कर, समाज से संवाद करते हुए और लोकतांत्रिक मूल्यों को जीते हुए अपने अस्तित्व का अनुभव करे।

आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो विवेक कुमार मिश्र ने अस्तित्ववाद को निराशा के अंधकार से निकालकर सत्य और मानवता के उज्ज्वल आकाश में प्रतिष्ठित किया है। उनकी रचनाओं में कभी-कभी दार्शनिक गहनता साधारण पाठक को कठिन लग सकती है, किन्तु वही गहनता उन्हें समकालीन हिंदी साहित्य में अलग और विशिष्ट बनाती है।

निष्कर्षतः विवेक कुमार मिश्र का साहित्य एक महावृत्तांत है—जिसमें चुप्पियाँ भी बोलती हैं, वृक्ष भी स्मृतियों के पृष्ठ खोलते हैं और चाय भी संवाद का सेतु बन जाती है। यह साहित्य हमें याद दिलाता है कि जीवन की सच्ची उपलब्धि ‘मैं’ से ऊपर उठकर ‘हम’ की सामूहिकता में जीना है। अस्तित्व की यह हरी पृथ्वी, जिसे मिश्र ने अपने शब्दों से सींचा है, आज के साहित्य को एक नई जीवनदायिनी दिशा प्रदान करती है।

दिनेश नागर
विद्या संबल असिस्टेंट प्रोफेसर

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments