
सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि पर विशेष
-प्रतिभा नैथानी-

“बाकी जो यह सुनकर गए थे कि चार सेर का गेहूं और चार आने की हाथ भर लंबी नान पाव मिलती है, वह लौट रहे थे क्योंकि वहां जाकर उन्हें यह भी पता चला कि चार सेर का गेहूं खरीदने के लिए एक रुपए की भी ज़रूरत होती है और हाथ भर लंबे नान पाव के लिए पूरी चवन्नी देनी पड़ती है। और यह रुपया, अठन्नियां न ही किसी दुकान पर मिलीं और न खेतों में उगीं । उन्हें हासिल करना उतना ही मुश्किल है जितना ज़िंदा रहने के लिए दौड़-धूप” – उर्दू की प्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगताई यह समझ चुकी थीं इसलिए वह पाकिस्तान नहीं गईं, लेकिन उनके जिगरी दोस्त अफसाना निगार सआदत हसन मंटो को नूरजहां की एक छोटी सी दलील ज्यादा समझ में आई कि – “क्यों न जाएं ? लाहौर,लाहौर है आख़िर। बाईस कमरों की हवेली मिलने का ख़्वाब भी आंखों में रहा हो शायद कि मुंबई का फिल्मस्तान छोड़कर मंटो पाकिस्तान चले गए।
एक ज़माना था जब दिल्ली में रहते हुए ऑल इंडिया रेडियो पर मंटो की तूती बोलती थी। उनके लिखे ड्रामे ख़ूब धूम मचाए हुए थे। वहीं उनके साथ हिंदी लेखक उपेंद्रनाथ अश्क भी काम करते थे । दोनों के बीच के झगड़ों ने इतना रूप ले लिया कि एक दिन मंटो दिल्ली छोड़कर मुंबई आ बसे। मुंबई में फिर उन्होंने अपना परचम लहराया। मगर यहां भी उपेंद्रनाथ अश्क से सामना हो गया। हालांकि बुलाया मंटो ने ही था मगर इस बार का झगड़ा तो सेट पर मारपीट में भी बदल गया। उस समय के लेखक ख़ूब अच्छा लिखते थे,लेकिन मंटो चाहते थे कि वह जहां बैठें, तारीफ़ सिर्फ़ उन्हीं की हो। पाकिस्तान में उनको एक अलग मुकाम मिलेगा। उर्दू में उन जैसा लिखने वाला कोई और नहीं है तो नए मुल्क में हर तरफ़ मंटो की पुकार होगी, सोचकर वह पाकिस्तान चले गए।
जैसा कि लिखने के लिए एक मन- मुताबिक माहौल की तलाश सबको रहती है तो मंटो भी इससे जुदा न था । लेकिन खुली हवा हो या बंद कमरा, शोरगुल हो कि खामोशी ! अलसुबह हो फिर गहरी रात ! मंटो कहीं भी कुछ नहीं लिख पाता था ।
यहाँ तक कि पाखाने में बैठकर सिगरेट सुलगाते हुए कुछ सोचना भी मंटो के बस में न हुआ। परेशान मंटो को तब उसकी बीवी सफिया सलाह देती थी – ‘तुम कागज़ लेकर तो बैठो, क़लम अपने आप दौड़ने लगेगी’। मंटो कहता है कि हां ! सच में हर बार यही होता था। कागज़-क़लम मिल जाए तो मिनटों में अफ़साने तैयार ।
भारत-पाक विभाजन के उस दौर में मची तबाही, यहाँ-वहाँ फैले लाशों के ढ़ेर,अपना वतन छोड़ मारे-मारे फिरने वालों के बीच ज़िंदा लाश बन गई औरतों पर सबसे दर्दनाक और रुह को कंपा देने वाले फ़साने सिर्फ़ मंटो ने लिखे।
‘टोबा टेक सिंह’ ‘घाटे का सौदा, ‘काली सलवार’, ‘खोल दो’, ‘धुँआ’, ‘नंगी आवाजें’, ‘सुरमा’, ‘दो कौमें, ‘सड़क किनारे’, ‘टिटवाल का कुत्ता’, ‘मम्मद भाई’, ‘नया कानून’ ‘शहीदे-साज’ ‘बू’ जैसी अनगिनत कहानियां उनकी अफसानानिगारी का कमाल हैं।
इस्मत चुगताई कहती हैं कि ज़माने के साथ चलता, ज़माने से दूर हाजिर जवाब शख़्स मंटो का एक-एक शब्द, एक-एक अफसाना जिस्म का एक-एक कतरा निचोड़ सकता है। मंटो की आलोचना करने वाले ही उसके सबसे ज़्यादा चाहने वाले हैं।
11 मई 1912 को भारत में जन्मे सआदत हसन मंटो का 18 जनवरी 1955 में पाकिस्तान के लाहौर में इंतकाल हो गया। मरने से पहले मंटो को तीन बार पागल खाने में भर्ती करवाया गया था। पागलपन की हालत में भी उन्होंने एक लेख लिखा था ‘बगरो बसंत है’ । नेहरू जी को संबोधित यह लेख उनके मौत के तीन माह बाद प्रकाशित हुआ।
नरेंद्र मोहन की ‘मंटो जिंदा है’, उपेंद्रनाथ अश्क की ‘मंटो मेरा दोस्त-मंटो मेरा दुश्मन’ और अहमद नदीम कासमी की ‘मंटो मेरा यार’ कहती हैं कि एक शख़्स जिसने बयालीस साल आठ महीने सात दिन ज़िंदगी के जिए, मगर दुनिया को सदियां दे गया।

















