पहाड़ के प्रेमचंद

" मैंने पहाड़ को हमेशा आदमी से जोड़ कर देखा है। जिस रचना में आदमी मौजूद नहीं उस पहाड़ से मेरा कोई संबंध नहीं। विकट पहाड़ पर जीने की कोशिश में घोर संघर्षों में जुटे हुए लोग" ... पहाड़ के प्रेमचंद कहे जाने वाले साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल जी का जन्मदिन है आज़।

vidya sagar notiyal
विद्यासागर नौटियाल

-प्रतिभा नैथानी-

प्रतिभा नैथानी

(लेखिका के समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में नियमित लेख एवं कविताएं प्रकाशित होती हैं)

‘भैंस का कट्या’, सुच्ची डोर, फुलियारी, फट जा पंचधार, कुदरत‌ की गोद में, माटी वाली, सोना, ‘एक शिकायत सबकी’ जैसी कहानियों के अलावा भीम अकेला (यात्रा संस्मरण) , सूरज सबका है, उत्तर बांया है, झुंड से बिछड़ा, यमुना के बागी बेटे, मोहन गाता जाएगा जैसे उपन्यास लिखने वाले विद्यासागर नौटियाल जी का संपूर्ण लेखन टिहरी केंद्रित है। शुरुआती लेखन के बाद एक लंबे अरसे तक वह साहित्य से नदारद रहे । यह समय उन्होंने राजशाही के ख़िलाफ़ चले विद्रोह में अग्रणी भूमिका निभाने में बिताया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष रहने के बाद अनेक मजदूर संस्थाओं और संघों के सक्रिय सदस्य एवं पदाधिकारी रहे। 1981में देवप्रयाग सीट से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चयनित हुए। तीस वर्षों तक वकालत भी की।
राजनीति में अपनी सक्रिय भागीदारी और रुझान के कारण लंबे समय तक वह साहित्य की सेवा नहीं कर पाए। साठ वर्ष की उम्र में वह लेखन में पुनः सक्रिय हुए और फिर लगभग दो दशक तक उन्होंने अनेक कहानियों और उपन्यासों की रचना की।

अंग्रेजी दासता से मुक्त होने के बावजूद अन्य रियासतों के मुकाबले टिहरी के राजा के पास धन-संपदा ज्यादा नहीं थी। ऐसे में राजा को अपनी विलासिता और विलायत घूमने-फिरने के शौक को पूरा करने के लिए वनों की नीलामी से राजकोष भरने का ख़्याल आया। उसने आम जनता के जंगलों में प्रवेश पर रोक लगा दी। मवेशी पालने की संख्या सीमित कर देने का हुक्म सुनाया गया। अपने जल, जंगल और जमीन के हक-हकूक से वंचित जनता ने बगावत कर दी। विद्रोह शांतिपूर्ण था, फिर भी एक अंतिम संस्कार में शामिल होने आए निहत्थे लोगों पर रियासत की पलटन ने गोलियां बरसा दीं। अठारह लोग मारे गए। कई लोगों ने जान बचाने के लिए यमुना में छलांग मार दी। जलियांवाला बाग हत्याकांड की तर्ज़ पर हुए इस नरसंहार को इतिहास में तिलाड़ी कांड के नाम से याद किया जाता है। मई 1930 को हुए तिलाड़ी कांड के उन शहीदों के चेहरे पर राजशाही ने यमुना तट पर तारकोल पोतकर पहचान करना असंभव कर दिया था और अन्य सैकड़ों विद्रोहियों ने माफी मांगकर टिहरी की जेल से रिहा होने के बजाय मृत्यु का आलिंगन कर भावी पीढ़ियों के लिए एक मिसाल कायम कर देना अधिक श्रेयस्कर समझा था। दुनिया से दबी-छुपी इस ऐतिहासिक घटना पर आधारित है विद्यासागर नौटियाल जी का उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ ।

पहाड़ में कई जगह ऐसा है कि लोगों के घर कहीं और होते हैं और खेत कहीं और ! । ये खेत सवर्णों के हैं। इन्हें जोतने से लेकर फसल तैयार हो जाने पर अनाज उनके घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी दासों पर है। लेकिन इन दासों के लिए स्वयं की जमीन का कोई प्रावधान नहीं। गेहूं के बीजों के अंकुर बर्फ़ के तले दब कर ना मर जाएं , क्वारींधार की चिकनी मिट्टी से ढेले निकाल लेने की जद्दोजहद में दो जवान बैलों की ताक़त से जूझता फजतू हल के फल को धरती के गर्भ तक पहुंचा देना चाहता है। लहलहाती पीली फसल से निहाल कर देना चाहता है वह अपने मालिक को । हाड़-तोड़ मेहनत से उगाई हुई इस फसल पर फजतू का कोई हक नहीं ! मालिक प्रताप सिंह को भी उसकी कोई कदर नहीं। इसी विडंबना का नाम है “क्वारींधार बोलेगी’ कहानी।

29 सितंबर 1933 को टिहरी गढ़वाल के मालीदेवल में जन्मे नौटियाल जी कहते हैं कि अब लगता है कि मैं तो कुछ भी नहीं लिख पाया। पूरा पहाड़ मुझसे मेरे लेखन का हिसाब मांगता नजर आने लगता है। क्या मुझे उन सब पर लिखने के लिए 75 साल की मोहलत मिल सकती है? पहाड़ के मर्दों के मुकाबले मुझे पहाड़ की नारी की अंतहीन वेदना अधिक आकर्षित करती रही है । सोना, माटी वाली, फट जा पंचधार और ‘एक शिकायत सबकी’ के पाठक इस वेदना के चरम से भलीभांति परिचित होंगे।

एशिया का सबसे ऊंचा बांध है टिहरी। एक पूरे शहर को डुबाकर तैयार हुआ है यह। रहवासियों को उनकी ज़मीन और मकान के बदले समुचित मुआवजा देकर दूसरी जगह विस्थापित कर दिया गया, लेकिन उन लोगों का क्या जो ‘माटी वाली’ की तरह घर-घर मिट्टी बेचकर अपनी रोजी-रोटी कमा रहे थे। उनके पास अपना कोई घर नहीं, कोई जमीन नहीं। किसी सवर्ण की जमीन पर झोपड़ी बनाकर रहने वाली वो गरीब हरिजन बुढ़िया पुनर्वास का काग़ज़ कहां से लाए जिससे विस्थापित लोगों को दूसरी जगह ज़मीन मिल रही है। बांध की दो सुरंगों को बंद कर दिया गया है और अब शहर में पानी भरने लगा है। जल्द से जल्द भाग जाने की अफरातफरी मची है हर तरफ। डूबते हुए श्मशानों को देखकर ‘माटी वाली’ के मुंह से निकलना कि “गरीब आदमी का श्मशान नहीं उड़जना चाहिए”, बहुत मार्मिक है।

कठिनाइयों का दूसरा नाम ही पहाड़ है। विपन्नता तो जैसे सदैव की सहचरी है, और अगर संपन्नता कहीं है तो वो आफत की गठरी भी कांख में साथ लिए आती है। इस पर विद्यासागर नौटियाल जी की कहानी है ‘सोना’ । नौ तोले की वजनी नथ के बोझ से बार-बार दुखती नाक पर गोद के बच्चे की उछल-कूद से उसे और ज़्यादा परेशानी हो रही है। नथ क्योंकि संपन्नता का प्रतीक है, इसलिए घर में यह किसी को मंजूर नहीं कि बहू नथ उतारकर अब सिर्फ़ एक हल्के आभूषण बुलांक में रहे। पति को ठेकेदारी में फिर मुनाफा होने के साथ ही नथ पर एक तोला सोना और चढ़ जाना तय था, मगर उससे पहले ही सोना की नाक झड़कर तड़ से जमीन पर गिर गई। सास कहती है – नाक सिलवा दो। ससुर कहते हैं- नथ में एक तोला सोना और जड़वा दो, पूरे दस तोले की हो जाएगी ।

” मैंने पहाड़ को हमेशा आदमी से जोड़ कर देखा है। जिस रचना में आदमी मौजूद नहीं उस पहाड़ से मेरा कोई संबंध नहीं। विकट पहाड़ पर जीने की कोशिश में घोर संघर्षों में जुटे हुए लोग” … पहाड़ के प्रेमचंद कहे जाने वाले साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल जी का जन्मदिन है आज़।

 

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