बाबू की चाय 

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– विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

बाबू चाय को
चाय की तरह पकने देते हैं
कोई जल्दबाजी नहीं
उनके यहां चाय पकती रहती है

एक चाय दूसरी चाय
फिर चाय के बाद की चाय
तो चाय से पहले की चाय
इस तरह चाय का दौर
उनके यहां कभी खत्म नहीं होता,
चाय के साथ एक सहज रिश्ता
चलता ही रहता है

चाय को धीरे-धीरे उबालते रहते हैं
कहते हैं कि चाय की उबाल
दूध की उबाल नहीं होती कि
आंख लगी और उबल गयी
चाय की उबाल तो बस उबाल ही है
कम से कम 72 उबाल तो ले ही लेती

फिर चाय में रंग और स्वाद उतरता है
उबलते चाय में काली मिर्च ,लौंग, इलायची
कूटकर डाल दें फिर थोड़ा सा शक्कर
और थोड़ा सा मन भी पका लें
फिर पकी हुई चाय
जीवन की उबलती हुई चाय होती है
जिसमें आदमी अपने सारे रिश्तों को जीता है

चाय जीने के लिए पी जाती है
चाय बातों के साथ
संबंध निभाने के लिए पी जाती है
चाय का प्याला मानवीय रिश्तों का
जोरदार स्वागत करता है

कोई कह दे मेरी भी चाय बना लेना
तो यह चाय बनाना मूलतः
जीवन के प्रति गहरे विश्वास का प्रतीक होता है
चाय हमारी दुनिया में
मानवी विश्वास का एक रिश्ता है ।

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