मुक्तिबोध की कविता अपने समय की पड़ताल है

केवल कल्पना लोक से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती हमें वास्तविक भूमि पर बदलाव के लिए कदम बढ़ाना होगा। वे कौन हैं जो जनता के हिस्से की सुविधा चट कर जा रहे हैं, सब कुछ जनता के नाम पर हो रहा है पर जनता को कुछ भी नहीं मिले , जनता ठगी रह जाती है तो यह सत्य और न्याय के साथ साथ बौद्धिक वर्ग की जिम्मेदारी पर भी सवाल उठाना है कि वह क्या कर रहा है ?

muktibodh

-संगीता मिश्रा-

संगीता मिश्र

मुक्तिबोध कृत ‘अंधेरे में’ पाठ व अर्थ की खोज – विवेक कुमार मिश्र पुस्तक लम्बी कविता ‘अंधेरे में’ का एक पाठ व अर्थ स्थापन की कोशिश है जिसमें लम्बी कविता के विधान में उस यथार्थ को देखा गया है जिससे रचना, समाज और मनुष्य के सामने उत्पन्न चुनौती के बीच आम आदमी किस तरह संघर्ष करता है और इस संघर्ष में एक ईमानदार आदमी की कोशिश कैसे अपने समाज को बचाती है। किस तरह मनुष्य का संघर्ष अकेले का संघर्ष नहीं होता उसके साथ सबका, सब जन का संघर्ष होता है। मुक्ति अकेले में नहीं सबके साथ होने में है। मुक्तिबोध मनुष्य की मुक्ति को सामाजिक जड़ता व अंधेरे से निकल कर अपनी लड़ाई के लिए सामने आने के रूप में देखते हैं। यहां जन की मुक्ति को, समाज कविता और लोकतंत्र की केंद्रीय चिंता से जोड़ते हैं।
अंदर और बाहर एक सतत संघर्ष चलता रहता है। इसे मैं और वह के विम्ब से समझाने की कोशिश की गई है। वह है और फिर न जाने कहां अंधेरे में गुम हो जाता। इस ‘मैं’ और ‘वह’ के बीच एक तानता एक सूत्रता की खोज अंधेरे में कविता के मूल में है। जो पाना है, जो सत्य है वह यहीं कहीं चक्करदार सीढ़ियों में, अंधेरे में, बावड़ी में, गुफा में खो गया है उसे पाने के लिए सकर्मक होकर चलना है ‘मैं’ का ‘वह’ से तदाकार हो जाना, जन जन से अपनी अनुभूति को अपने सत्य को जोड़ लेना ही कविता का मूल है। जब तक सब संघर्ष के भागीदार नहीं बनेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा इसलिए यह कविता आत्मसंघर्ष के लिए जन जन को तैयार करती है। केवल कल्पना लोक से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती हमें वास्तविक भूमि पर बदलाव के लिए कदम बढ़ाना होगा। वे कौन हैं जो जनता के हिस्से की सुविधा चट कर जा रहे हैं, सब कुछ जनता के नाम पर हो रहा है पर जनता को कुछ भी नहीं मिले , जनता ठगी रह जाती है तो यह सत्य और न्याय के साथ साथ बौद्धिक वर्ग की जिम्मेदारी पर भी सवाल उठाना है कि वह क्या कर रहा है ? उसके होने का कोई अर्थ है कि नहीं ? या वह यूं ही बाजीगिरी ही कर रहा है । इस तरह प्रश्नों और जवाबदेही को सामने रख सामाजिक बदलाव के लिए यह कविता जन आंदोलन की मांग करती है और इसके लिए इतिहास, मनुष्य की उपस्थिति और उन सारी स्थितियों पर ध्यान खींचती है जिसकी वजह से मनुष्य होने की न्यूनतम आवश्यकता को तो पूरी किया जा सके और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक बच्चों से लेकर कक्का तक इस संघर्ष में भागीदारी निभाते हैं । यह कविता मूलतः संघर्ष की यथार्थ कहानी है जहां से राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की हवा को उठते हुए हम देखते हैं।
यहां ‘अंधेरे में ‘ का संघर्ष गली गली से , सड़क सड़क से और जन – जन के आत्म संघर्ष का परिणाम है जिसे पाने के लिए अतल में धसना होगा । यहां स्वप्न और यथार्थ के बीच यथार्थ की भीषण टकराहट में सबको साथ लेकर चलने की जरूरत है। किसी एक के स्वप्न में सबकी मुक्ति नहीं मिलती पर सबकी मुक्ति का स्वप्न यथार्थ रुप में रचने का काम मुक्तिबोध करते हैं। किसी भी कविता को बार बार समझने गुनने की जरूरत पड़ती है इसी क्रम में यह पुस्तक सामने आई है। मुक्तिबोध की कविता का एक छोर भीषण यथार्थ से टकराते हुए स्वप्न कथा में स्वयं की , जन की और कविता की मुक्ति को देखना भी रहा है। मुक्तिबोध भारतीय समाज में आम आदमी के संघर्ष और स्वप्न के प्रतिनिधि कवि के रूप में अपनी अमिट पहचान के साथ उपस्थित हैं । मुक्तिबोध की कविताएं भारतीय समाज के सख्त यथार्थ से आम आदमी के जूझने और संघर्ष के बीच यथास्थितिवाद से मुक्ति की स्वप्नकथा हैं । उन्हें पढ़ा जाना सीधे सीधे यथार्थ से साक्षात्कार और इस यथार्थ में अपनी उपस्थिति को दर्ज करना भी है। हमारे होने और न होने के क्या मायने हैं , इस बात को बहुत गहराई से यदि किसी एक कवि की कविताएं समझाती हैं तो वह मुक्तिबोध ही हैं।

 

मुक्तिबोध कृत – ‘अंधेरे में’ : पाठ व अर्थ की खोज
लेखक – विवेक कुमार मिश्र
104 – A /80 सी, रामबाग, कानपुर -208012(उ.प्र.)
अमन प्रकाशन कानपुर

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