
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
दिल में तेरे कभी रहे तो नहीं।
तेरे दर से मगर उठे तो नहीं।।
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ऑंधियों से मुक़ाबला ही रहा।
टूट कर पेड़ से गिरे तो नहीं।।
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मेरे जैसे अजीब दीवाने।
रास्ते में तुम्हें मिले तो नहीं।।
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ख़ून बोते हैं लाश उगती है।
ऐसे क़िस्से कहीं सुने तो नहीं।।
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छा गया क्यों ज़मीं पे अंधियारा।
चाॅंद सूरज कहीं लड़े तो नहीं।।
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ख़ुद के तैराक पर भरोसा था।
इस समंदर से हम डरे तो नहीं।।
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अजनबी हो गए हैं क्यों रस्ते।
हम तेरे शहर में नए तो नहीं।।
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क्या ज़रूरत है हमको मरहम की।
चाॅंद के ज़ख्म भी भरे तो नहीं।।
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मुफ़लिसी* में सुकून है “अनवर”।
अपने दिन भी कोई बुरे तो नहीं।।
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मुफ़लिसी*ग़रीबी
शकूर अनवर