स्क्रॉलिंग से साइक्लिंग तक: नींद, सुकून और जीवनशैली में क्रांतिकारी बदलाव की कहानी नेत्र चिकित्सक की लेखनी से

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-डॉ. सुरेश पाण्डेय

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नेत्र सर्जन, लेखक, प्रेरक वक्ता
सुवि नेत्र चिकित्सालय, कोटा

आज के डिजिटल युग में हमारा सबसे कीमती संसाधन—समय—हमारे हाथ में मौजूद एक डिवाइस द्वारा ही नियंत्रित हो रहा है। दिनभर की व्यस्तता के बाद जब हम थोड़ी शांति की तलाश में होते हैं, तो हम अनजाने में उसी चीज़ की ओर मुड़ जाते हैं, जिसने हमारी मानसिक शांति को निगलना शुरू कर दिया है—स्मार्टफोन की स्क्रीन और उस पर चलने वाली अंतहीन स्क्रॉलिंग। एक वीडियो से दूसरे, एक पोस्ट से दूसरे, और एक रील से अगली रील तक हम उस चक्रव्यूह में फँसते चले जाते हैं, जिससे निकलना धीरे-धीरे असंभव लगता है।

रात का भोजन जो कभी परिवार के साथ बातचीत, हँसी-ठिठोली और आपसी जुड़ाव का समय हुआ करता था, वह आज केवल अंगूठे की हरकतों में सिमट गया है। कई बार तो हमें यह तक याद नहीं रहता कि हमने आख़िरी आधे घंटे में क्या देखा, और क्यों देखा। क्या वह जानकारी हमारे लिए उपयोगी थी? क्या उसने हमारे जीवन को बेहतर बनाने में कुछ योगदान दिया? उत्तर अक्सर “नहीं” होता है।

मैंने स्वयं इस आदत को पहचाना और यह अनुभव किया कि यह सिर्फ़ एक टाइम-पास नहीं है, यह एक प्रकार की डिजिटल लत बन चुकी है। इस लत ने मेरी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित किया, मेरे प्रातःकालीन ऊर्जा स्तर को गिराया, और जीवन में एक अदृश्य बेचैनी घोल दी। तब मैंने एक निर्णय लिया—इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का।

इस यात्रा की शुरुआत हुई सुबह जल्दी उठने और साइक्लिंग करने से। डॉक्टर अशोक मूंदड़ा और डॉक्टर भारत सिंह शेखावत जैसे प्रेरक व्यक्तित्वों की संगति में मैंने साइक्लिंग शुरू की। हर सुबह पाँच बजे का अलार्म अब एक मिशन का संकेत बन गया। जैसे ही प्रातः की ठंडी हवा चेहरे को छूती, लगता जैसे प्रकृति कह रही हो—“वेलकम बैक टू रियल लाइफ।” यह शुरुआत मात्र एक आदत का परिवर्तन नहीं था, यह एक पूर्ण जीवनशैली का कायाकल्प था।

धीरे-धीरे मेरा शरीर और मन इस नयी लय के साथ सामंजस्य बिठाने लगा। अब रात को दस बजे नींद स्वतः आने लगी, और सुबह चार बजे आँखें खुद-ब-खुद खुलने लगीं। नींद गहरी और सुकूनभरी हो गई। इस बदलाव के पीछे केवल आत्म-अनुशासन ही नहीं, बल्कि विज्ञान भी था।

Sleep Health Journal में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, जो लोग सोने से एक घंटे पहले तक डिजिटल स्क्रीन का उपयोग करते हैं, उनकी नींद की मात्रा और गुणवत्ता दोनों में गिरावट देखी गई। इसका मुख्य कारण है स्मार्टफोन की स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी (Blue Light), जो शरीर में नींद के लिए ज़िम्मेदार हार्मोन मेलाटोनिन (Melatonin) के स्राव को बाधित करती है।

Journal of Clinical Sleep Medicine में छपी एक अन्य स्टडी के अनुसार, देर रात तक स्क्रीन टाइम का सीधा असर मस्तिष्क की रिस्टोरेशन क्षमता पर पड़ता है। नींद के दौरान मस्तिष्क की कोशिकाएँ खुद को रिपेयर करती हैं, यादों को संग्रहीत करती हैं और संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को स्थिर करती हैं। पर जब यह नींद अधूरी या सतही होती है, तो यह चक्र बाधित हो जाता है।

Nature and Science of Sleep में एक महत्वपूर्ण अध्ययन बताता है कि युवाओं में स्क्रीन का अत्यधिक प्रयोग नींद में देरी, बार-बार नींद खुलने, और थकान जैसे लक्षणों से जुड़ा है। नीली रोशनी के प्रभाव से न केवल नींद प्रभावित होती है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ता है—जैसे चिड़चिड़ापन, अवसाद, और ध्यान में कमी।

अब जब मैं सुबह जल्दी उठता हूँ और दो घंटे प्रकृति की गोद में, साइक्लिंग और ध्यान में लगाता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि यह समय मेरे जीवन की सबसे कीमती “डिजिटल डिटॉक्स” की घड़ी है। न कोई नोटिफिकेशन, न कोई स्क्रीन की खनक—केवल मैं, मेरी साँसे, और साइकिल के पहियों की मधुर ध्वनि।

पचास साल पहले 24 घंटे बिजली नहीं थी, फिर भी जीवन शांत और सरल था। बीस साल पहले इंटरनेट और डेटा सीमित था, फिर भी हम गहरी नींद में सोते थे और रिश्तों में गहराई थी। आज हमारे पास बिजली भी है, डेटा भी, हाई-स्पीड 5G भी, लेकिन फिर भी हम सो नहीं पा रहे हैं। हमारी नींद तो खो ही रही है, साथ ही खो रहा है आत्मसंवाद, आत्मसंतुलन और जीवन की सहजता।

यह विडंबना नहीं, चेतावनी है। अगर हमने समय रहते इस डिजिटल अराजकता को समझा नहीं, तो हमारे शरीर और मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। नींद की कमी से मोटापा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग, और डिप्रेशन जैसे रोगों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।

Harvard Medical School के अनुसार, प्रतिदिन 7-8 घंटे की गहरी नींद लेने वाले लोगों में हृदय रोग का खतरा 50% तक कम हो सकता है। वहीं, The Lancet में छपी एक स्टडी के अनुसार, साइक्लिंग जैसे नियमित एरोबिक व्यायाम से न केवल नींद की गुणवत्ता बेहतर होती है, बल्कि डोपामीन और सेरोटोनिन जैसे “हैप्पी हार्मोन्स” का स्तर भी बढ़ता है।

आज आवश्यकता है—फिर से एक बार रात्रि के समय को “स्क्रीन-फ्री” समय घोषित करने की। भोजन के बाद स्मार्टफोन नहीं, परिवार के साथ संवाद की परंपरा को पुनः जीवित करना होगा। सोने से कम से कम एक घंटा पहले स्क्रीन से दूरी बनाकर पढ़ाई, ध्यान या परिवार संग कुछ शांत समय बिताना होगा।

हम अपने बच्चों को कितनी भी अच्छी शिक्षा दें, लेकिन यदि उन्हें एक स्वस्थ नींद और डिजिटल संतुलन नहीं सिखाया, तो वह शिक्षा अधूरी रह जाएगी। एक जागरूक समाज और एक प्रेरक नेतृत्व तभी पनपेगा जब नींद पूर्ण और मस्तिष्क शांत होगा।

मैं अब प्रत्येक दिन अपने जीवन को फिर से जीता हूँ, क्योंकि मैंने “स्क्रॉलिंग” को छोड़कर “साइक्लिंग” को अपनाया। मैंने रात की नीली स्क्रीन को छोड़कर, सुबह की नीली आकाश को चुना।

आप भी कोशिश कीजिए। स्क्रीन को साइड में रखकर, एक बार सुबह सूरज को उगते हुए देखिए। आपको एहसास होगा कि जीवन सिर्फ़ नोटिफिकेशन और अलर्ट्स से कहीं ज्यादा सुंदर है।

डॉ. सुरेश पाण्डेय
नेत्र सर्जन, लेखक, प्रेरक वक्ता
सुवि नेत्र चिकित्सालय, कोटा

 

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