
-Manoj Abhigyan
यह बहस सिर्फ अंग्रेज़ी बनाम भारतीय भाषाओं की नहीं है — यह बहस उस अदृश्य दीवार की है जिसे एक ख़ास वर्ग सदियों से खड़ा करता आया है ताकि आम जन उस ज्ञान, सत्ता और अवसर तक पहुँच न सके जो उनकी मुट्ठियों में बंद है। जब कोई यह कहता है कि अंग्रेज़ी बोलने वालों को शर्म आनी चाहिए, तब वह केवल भाषा पर आघात नहीं करता, बल्कि उस हर वंचित पर हमला करता है जो भाषा के ज़रिए अपना भविष्य संवारना चाहता है। यह बहस दरअसल भाषा की खोल में लिपटी वर्गीय साज़िश है, जिसमें लहज़ा भारतीयता का है लेकिन लक्ष्य बराबरी का गला घोंटना।
गृह मंत्री की बातों से ज़्यादा खतरनाक बात कुछ और नहीं हो सकती कि इस देश में अंग्रेज़ी बोलने वालों को शर्म आनी चाहिए। कौन शर्मिंदा होगा? वो बच्चा जो झुग्गी में पैदा हुआ लेकिन मेहनत कर के अंग्रेज़ी बोलना सीख गया? वो मज़दूर परिवार की बेटी जिसने कॉल सेंटर में नौकरी पाई? शर्म किसे आनी चाहिए — उसे जो ज्ञान की भाषा को जनता से छीनना चाहता है, या उसे जो ज्ञान के दरवाज़े सबके लिए खोलना चाहता है?
यह बात बार-बार दोहराई जाती है कि “हमारी भाषाएं हमारी संस्कृति का गहना हैं।” हां, हैं — लेकिन संस्कृति सिर्फ अतीत नहीं होती, वह संघर्ष और भविष्य की भी बात करती है। अगर कोई भाषा सत्ता और ज्ञान की चाबी बन गई है, तो उस भाषा से जनता को काट देना संस्कृति नहीं, साजिश है। यह वही साजिश है जो संस्कृत से दूर रखकर धर्मशास्त्रों को किसी खास वर्ग की बपौती बनाती रही। आज वही साजिश अंग्रेज़ी के साथ दोहराई जा रही है — ताकि मेहनतकश लोग सत्ता के गलियारों में दाखिल ही न हो सकें।
जब कोई कहता है कि देश की भाषाओं के बिना हम भारतीय नहीं रहेंगे, तो सवाल उठना चाहिए — कौन भारतीय? क्या वो बच्चे जो सरकारी स्कूलों में खस्ताहाल हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ते हैं, और फिर नौकरी की दौड़ में अंग्रेज़ी मीडियम वालों से हार जाते हैं — क्या वो भारतीय नहीं हैं? असली हमला यहां भारतीयता पर नहीं, समानता पर है। यहां कोशिश हो रही है कि शिक्षा का औजार सिर्फ अभिजात्य वर्ग के पास रहे, ताकि नीचे से कोई ऊपर न आ सके।
अंग्रेज़ी को पुल मानना, सवाल पूछने का औजार मानना, बराबरी का रास्ता मानना सत्ता की आंखों में खटकता है। क्योंकि सत्ता जानती है, अगर गरीब का बच्चा अंग्रेज़ी सीखेगा, तो वह मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास कर सकता है। उसे पता है कि कानून पढ़कर न्यायपालिका तक पहुंच सकता है। उसे पता है कि अंग्रेजी पढ़कर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की असल तस्वीर रख सकता है — जिसे छुपाने के लिए सत्ता दिन-रात ‘भारतीयता’ की दुहाई देती है।
जब कोई यह कहता है कि अंग्रेज़ी बोलने वालों को शर्म आनी चाहिए, तो दरअसल वह कहना चाहता है — तुम पूछो मत, पढ़ो मत, आगे मत बढ़ो। जहां हो, वहीं रहो। भाषा कोई पाप नहीं होती, लेकिन भाषा को हथियार बना कर जनता से उसका हक छीनना सबसे बड़ा अपराध है। सत्ता चाहती है कि जनता बंधी रहे, ताकि सोच कभी उड़े ही नहीं। लेकिन हवा की कोई लिपि नहीं होती, कोई भाषा नहीं होती — और जब सोच उड़ती है, तो वह न ज़ंजीर पहचानती है, न दायरा।
भाषा अगर नदी है, तो उसे किसी एक किनारे से नहीं बाँधा जा सकता। वह बहती है — चेतना में, संघर्षों में। उसकी धारा कभी संस्कृत में गूँजती है, कभी तमिल में लहराती है, कभी अंग्रेज़ी में गरजती है। जो इसे थामना चाहते हैं, वे दरअसल समय को बाँधना चाहते हैं। लेकिन समय कब किसी की मुट्ठी में रहा है?
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)