जनगणना की संभावनाओं को सुप्रीम कोर्ट के फैसले संग जोड़कर देखने की जरूरत

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प्रतीकात्मक फोटो

-सुनील कुमार Sunil Kumar

हर दस बरस में होने वाली भारत की जनगणना 2011 के बाद से नहीं हो पाई थी क्योंकि 2021 की जनगणना के पहले कोरोना का बड़ा प्रकोप था, देश में लॉकडाउन लगा था, और करोड़ों लोग घर-बार से दूर थे। ऐसे में जनगणना मुमकिन नहीं थी। लेकिन 2020 के बीच में लगे इस लॉकडाउन के बाद चार बरस हो चुके हैं, और अब तक मोदी सरकार ने जनगणना नहीं करवाई। अब ऐसी सुगबुगाहट है कि अगले महीने इसे शुरू करवाया जा सकता है, और करीब डेढ़ बरस की मेहनत से जनगणना पूरी होगी। 2021 की जनगणना 2025, मार्च 2026 तक पूरी होने से हो सकता है कि आगे की तमाम जनगणना का साल ही बदल जाए। सरकार के भीतर, और सरकार के बाहर के देश के बहुत से अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि जनगणना न होने से, और आबादी की गिनती से परे जनता की बहुत सारी जानकारी भी इस रिपोर्ट के न आने से उपलब्ध नहीं रहती है, और देश के विश्लेषण का काम मुमकिन नहीं हो पाता है। सरकार की नीतियों, और उसके कार्यक्रमों को बनाने में ये तमाम आंकड़े औजार और कच्चे माल की तरह रहते हैं, और अर्थशास्त्री इनके बिना न निष्कर्ष निकाल पा रहे थे, न योजना बना पा रहे थे। हर एक दशक में होने वाली जनगणना और इसके साथ के बाकी आंकड़े अब डेढ़ दशक के बाद आएंगे, और योजनाशास्त्रियों को अपने बहुत से पैमाने बदलने पड़ेंगे।

जनगणना की खबर आते ही विपक्ष ने इसमें अपना एक मुद्दा जोड़ा है, और कहा है कि इसके साथ-साथ जाति गणना भी करवाई जाए। कांग्रेस ने औपचारिक रूप से यह मांग की है कि इंडिया-गठबंधन पूरी तरह एकजुट होकर इसकी मांग कर रहा है, और जनगणना के प्रश्नावली में ही ओबीसी वर्ग की पहचान का एक कॉलम जोड़ा जाना चाहिए। लोगों को याद होगा कि लोकसभा चुनाव के और पहले से, बल्कि बिहार में जाति जनगणना होने के बाद से कांग्रेस ने पूरे देश में जाति जनगणना की वकालत शुरू की थी, संसद से सडक़ तक उसकी मांग की थी, और लोकसभा के चुनावी घोषणापत्र के साथ-साथ विधानसभा चुनावों के घोषणापत्र में भी कांग्रेस और इंडिया-गठबंधन की तरफ से सरकार बनने पर इसका वायदा किया गया था। राज्य के स्तर पर बिहार की जाति जनगणना का फैसला सुप्रीम कोर्ट तक खड़े रहा, और इससे अब किसी प्रदेश सरकार द्वारा या केन्द्र सरकार द्वारा जाति जनगणना का रास्ता खुला हुआ है। कांग्रेस ने यह मांग एकदम सही समय पर की है, और इंडिया-गठबंधन की बाकी पार्टियां मोदी सरकार के सामने एक दुविधा खड़ी कर सकती हैं कि वह ओबीसी जनगणना न करवाकर इस सबसे बड़े तबके की उपेक्षा कर रही है।

हमारा सोचना इससे भी थोड़ा अलग है। अब सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद एसटी और एससी समुदायों के भीतर भी उपजातियों के आधार पर आरक्षण में आरक्षण का रास्ता खुल गया है। भारत सरकार की जनगणना में जाति का कॉलम सिर्फ ओबीसी तक सीमित नहीं रहना चाहिए, जनगणना में एसटी-एससी तबकों की उपजातियां भी दर्ज होनी चाहिए ताकि कोई राज्य अगर इन आरक्षित तबकों के भीतर किसी एक जाति की स्थिति देखना चाहे, और उसके लिए अलग से कोई आर्थिक कार्यक्रम बनाना चाहे, कोटे के भीतर कोटा देना चाहे, तो उसे अलग से जनगणना की जरूरत न पड़े। जनगणना में हर किसी की जाति की जानकारी भी लिखी जाती है, यह एक अलग बात है कि अब तक जनगणना उपजातियों की, या ओबीसी की जानकारी का अलग से विश्लेषण नहीं करती। जिन जानकार लोगों से हमने पूछा है, उनका कहना है कि कम्प्यूटरों से यह जानकारी पल भर में निकाली जा सकती है कि किस उपजाति के कितने लोग हैं। अभी भी भारत सरकार की जनगणना एक विश्वसनीय कार्यक्रम रहते आया है, और राज्यों के स्तर की जनगणना, जाति जनगणना, और दूसरे आर्थिक-सामाजिक पैमानों की जानकारी भी जनगणना के साथ जुटाई जानी चाहिए। इससे एक ऐसा व्यापक डाटा-बेस तैयार होगा जो आरक्षण के किसी नए समीकरण को बनाने में भी काम आएगा, और अदालत में उसे बचाने में भी काम आएगा। देश में आरक्षण, ओबीसी, उपजातियां, क्रीमीलेयर इन सबका मामला इतना उजागर हो चुका है, और हर संबंधित तबका अपने हकों के लिए जागरूक हो चुका है कि अब जनगणना और जातियों की जानकारी को छुपाए रखने का कोई मतलब नहीं है। जाति जनगणना और सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उपजी जानकारी की जरूरत को ध्यान में रखकर अगली जनगणना को उसी हिसाब से ढालना चाहिए, या अगर वह पहले से इसके लिए तैयार है, तो जाति और उपजाति की जानकारी के आंकड़े खुलकर जनता के सामने रखना चाहिए। अब इन जानकारियों के सामने आने से किसी नए आरक्षण का बवाल खड़ा नहीं होना है, और जातियों और जनगणना की, आर्थिक, सामाजिक, और शैक्षणिक स्तर की जो देश की हकीकत है, उसे छुपाकर रखने से किसका भला होने जा रहा है? अब तो मोदी सरकार ने देश मेें अनारक्षित तबकों के लिए भी कमजोर आर्थिक स्थिति के आधार पर दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की है, जो कि अभूतपूर्व फैसला था, और यह एक अलग बात है कि इस नए कोटे के भीतर सचमुच के आर्थिक कमजोरों के लिए कोई गुंजाइश इसलिए नहीं है कि देश में आय प्रमाणपत्र बनवाने की सबसे भ्रष्ट व्यवस्था के चलते अधिकतर अनारक्षित लोग अपने को क्रीमीलेयर के नीचे का, और इस आरक्षण का हकदार साबित कर सकते हैं, शायद कर रहे हैं।

डेढ़ दशक बाद की यह जनगणना इसके बाद के दो और मामलों से जुड़ी हुई है। लोकसभा और विधानसभा सीटों का डी-लिमिटेशन इस जनगणना के आधार पर होगा, और उसके बाद महिला आरक्षण लागू होगा। इन दो बातों की वजह से यह जनगणना ऐतिहासिक महत्व की रहेगी। आज का वक्त एक ऐसी पारदर्शिता का है कि लोगों के नाम सहित उनकी निजी जानकारियां उजागर न करते हुए भी जनगणना की अधिक से अधिक आम जानकारी जनता के बीच रख देनी चाहिए। जनगणना के केवल निजी और व्यक्तिगत हिस्सों को सार्वजनिक नहीं करना चाहिए, और बाकी हिस्से वोटरलिस्ट की तरह ही सामने रहने चाहिए। मोदी सरकार के सामने यह एक मौका है जब वह जाति जनगणना की मांग जोर पकडऩे के पहले ही उसे मंजूर कर सकती है। अभी अगर सरकार खुद ऐसा फैसला लेती है, तो उसे वाहवाही का एक हिस्सा मिल सकता है, लेकिन लेटरल एंट्री और कुछ दूसरे फैसलों की तरह अगर केन्द्र सरकार विपक्ष के आंदोलन के बाद इस मांग को मानेगी, तो इससे उसकी ताकत नहीं, कमजोरी दिखेगी।

(देवेन्द्र सुरजन की वाल से साभार)

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