‘प्रधानमंत्रियों के लिए बनाओ अलग से क्षार बाग ‘

kota ka sharbaug
कोटा का क्षार बाग।
-धीरेन्द्र राहुल-
rahul ji
धीरेन्द्र राहुल
हजारों सालों से भारत अस्तित्व में है और आगे भी रहेगा। लोकतंत्र भी रहेगा और प्रधानमंत्री भी बदलते रहेंगे। मनुष्य जीवन लिया है तो स्वर्गीय भी होते रहेंगे। हर बार यह सवाल भी उठता रहेगा कि प्रधानमंत्री का अंतिम संस्कार सम्मान से हुआ या नहीं?
हमारे यहां सम्मान की सबसे बड़ी कसौटी है कि राजघाट पर समाधि बनी या नहीं? राजघाट वह जगह है जहां महात्मा गांधी, पं जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चौधरी चरणसिंह की समाधियां हैं। लेकिन जब विश्वनाथ प्रतापसिंह, पीवी नरसिंहराव और अब मनमोहनसिंह का निधन हुआ तो यह विवाद फिर से उठा कि मौजूदा सरकार ने उनका सम्मान नहीं किया।
अटलबिहारी वाजपेयी का निधन हुआ था, तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें जैसा सम्मान दिया, वैसा मनमोहनसिंह को नहीं दिया गया। जबकि देश के लिए उनका भी योगदान कम नहीं।
इस मामले में भारत सरकार राजपूताना की क्षार बाग परम्परा से क्यों नहीं सीख लेती? वैसे सभी रियासतों में यह परम्परा रही है लेकिन मैं यहां कोटा राज परिवार के क्षार बाग का उदाहरण सामने रखता हूं। क्षार बाग, यानी शाही मुक्तिधाम या श्मशान घाट।
कोटा में 393 साल में सत्रह हाड़ा शासकों ने शासन किया। मुगल सम्राट शाहजहां ने सन् 1631 में फरमान जारी कर बूंदी के राजकुमार राव माधोसिंह को कोटा राज्य का पहला शासक घोषित किया था। उससे लेकर अंतिम शासक महाराव भीमसिंह रहे। सभी का अंतिम संस्कार इसी क्षार बाग में किया गया।
यह क्षार बाग सिर्फ आधा बीघा में फैला है। इतिहासविद् फिरोज अहमद के अनुसार राव माधोसिंह से लेकर किशोर सिंह द्वितीय तक की समाधि पर छतरियां ( शिव मंदिर ) बनाई गई। उसके बाद के शासकों के चबूतरे बनाए गए।
वैसे ही प्रधानमंत्रियों के लिए एक शमशान घाट ( क्षार बाग ) क्यों नहीं बना दिया जाता। जहां छोटी छोटी समाधियां भी बनाई जा सकती हैं।
वैसे आदर्श स्थिति तो यह है कि अमर होने की महत्वाकांक्षा छोड़कर प्रधानमंत्री पद पर रहने वाले राजनेता अपने पार्थिव शरीर का देहदान करके जाए या वसीयत करके जाए कि उनका दाह संस्कार उनके निर्वाचन क्षेत्र में ही किया जाए। मुगल सम्राट बाबर ने भारत में चार साल शासन किया था लेकिन मरते समय अपनी वसीयत करके गया था कि उसे काबुल ( अफगानिस्तान ) में ही दफनाया जाए।
आप सोचिए, अगले पांच हजार साल तक भारत में लोकतंत्र रहा और नई दिल्ली की गद्दी पर दो हजार प्रधानमंत्री हुए और हर प्रधानमंत्री ढाई- ढाई बीघा जमीन लेकर मरा तो समूची नई दिल्ली प्रधानमंत्रियों का समाधि स्थल ही बन जाएगी।
इसलिए भारत सरकार ने इसके बारे में नीति बनानी चाहिए। हर बार यह भावनात्मक मुद्दा नहीं बनना चाहिए और न किसी का निरादर होना चाहिए।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं )।
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