
-विष्णुदेव मंडल-

चेन्नई। बिहार की तरह तमिलनाडु सरकार ने भी जातीय जनगणना कराने का बिगुल फूंक दिया है। मौजूदा तमिलनाडु सरकार राज्य में प्रत्येक जाती की सही संख्या जानना चाहती है। खासकर ओबीसी जातियों की असली संख्या को पता करने के लिए राज्य सरकार जातीय जनगणना कराना चाहती है, ताकि वोट रूपी फसल काट कर सत्ता में बनी रहे। गौरतलब है कि डीएमके सरकार सवर्ण जातियों को 10ः आरक्षण देने की घोर विरोधी रही है। उन्होंने संसद में भी ऊंची जातियों को 10ः आरक्षण देने का विरोध किया था। पीएमके सुप्रीमो एस रामदास भी अक्सर जातीय जनगणना कराने की मांग करते रहे हैं। रामदास वन्नियर जाती से आते हैं और वह कई बार अपने जाती समुदाय के लिए आरक्षण की मांग करते रहे हैं। मौजूदा तमिलनाडु सरकार इसी तरह सरकारी नौकरियों में 69 प्रतिशत पिछडी और अलपसंख्यक और बीसी जातियों को आरक्षण देना चाहती है ताकि उनका वोट बैंक बरकरार रह सके।
सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण
बिहार में पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की गठबंधन सरकार जातीय जनगणना करवा रही है। यह दोनों पिछले 32 सालों से बिहार में सत्ता में हैं। इन्होंने हमेशा पिछड़ी जातियों की राजनीति की है। बावजूद इसके उन्होंने ओबीसी और पिछड़ी जातियों को सिर्फ वोट बैंक माना। जाति के नाम पर अपने सगे संबंधियों को राजनीतिक और सरकारी सेवा में अगली पंक्ति में रखा। लालू यादव तो आरक्षण केसबसे बडे पैरोकार है। उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत उम्मीदवार अपनी जातियों के उतारे थे। लालू प्रसाद यादव ने चारा घोटाला के आरोपित होने के बाद अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाया और दोनों बेटे और बेटी को राजनीति में मौका दिया। इन्हें उस वक्त समाजवाद याद नहीं आया। उस वक्त सिर्फ परिवार सामने दिखा और सत्ता में परिवार को बैठाया। अब इन्हें सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय जनगणना करानी है!
परिवार वाद पर टिकी है डीएमके की राजनीति
कमोबेश तमिलनाडु के डीएमके की राजनीति भी परिवार वाद पर टिकी है। उतरप्रदेश में समाजवादी पार्टी भी ओबीसी और पिछड़ी जातियों के पैरोकारी करती हैं और जातीय जनगणना के पक्षधर है लेकिन यहाँ भी सिर्फ यादवो का हित साधा गया। एक समय था जब दिवंगत मुलायम सिंह यादव के परिवार में पचास से भी अधिक लोग लोकसभा, विधानसभा, विधान परिषद और अन्य शासकीय पद पर थे। उस समय इन नेताओं को ओबीसी और हासिये पर नजर नहीं आए। अब आजादी के 75 साल बाद इन दलों काी राजनैतिक जमीन दरकने लगी तो ये राजनीतिक दलों एक बार फिर मंडल बनाम कमंडल के राजनीति पर बल दे रहे हैं ताकि समाज को जात पात में बंटकर इनके राजनीति पोषण का हथियार बन सके।
बिहार की तरह तमिलनाडु सरकार ने भी अपनी राजनीति को मुकम्मल रखने के लिए पिटारे से जातिगत जनगणना का जिन्न निकाल दिया है। इसके समर्थक यहां के लगभग सभी राजनीतिक दल हैं।
एआईएडीएमके सरकार ने किया था आयोग का गठन
तमिलनाडु सरकार ने एक नीति नोट में कहा है कि सरकार शैक्षणिक संस्थानों और राज्य में सरकारी सेवा में नियुक्तियों में 69 प्रतिशत कोटा लागू करने के लिए भी प्रतिबद्ध है। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पहले ही जातिवार जनगणना की मांग कर चुके हैं। विपक्षी एआईएडीएमके ने अपने पिछले कार्यकाल में जातियों, समुदायों और जनजातियों पर मात्रात्मक डेटा के संग्रह के लिए एक आयोग का गठन किया था और मद्रास उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए कुलशेखरन को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया था। अन्नाद्रमुक की सहयोगी पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) की मुखर मांग के बाद आयोग का गठन किया गया था।
(लेखक बिहार मूल के चेन्नई प्रवासी स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं)