
-देवेंद्र यादव-

लगता है राहुल गांधी ने बिहार में पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली है। वह बिहार में कांग्रेस को मजबूत करने के लिए गंभीर दिखाई दे रहे हैं। बिहार को लेकर राहुल गांधी की गंभीरता का प्रमाण, बिहार कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रभारी को बदलने से मिलता है। राहुल गांधी बिहार को लेकर कितने गंभीर हैं यह प्रमाण उनकी लगातार बिहार की दो यात्राओं से लगाया जा सकता है। इसके प्रमाण इन यात्राओं के तुरंत बाद उन्होंने बिहार कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रभारी मोहन प्रकाश को हटाकर कृष्ण अल्लावरू को राष्ट्रीय प्रभारी बनाकर दिया है।
राहुल गांधी बिहार से अलग हुए राज्य झारखंड में लगातार कांग्रेस के गठबंधन से बनी झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार की जीत से भी उत्साहित हैं। वह समझ रहे हैं कि जब कांग्रेस झारखंड राज्य में बेहतर प्रदर्शन कर लगातार दूसरी बार अपने गठबंधन की सरकार बन सकती है तो फिर बिहार में झारखंड की तरह बेहतर प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकती।
बिहार की सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस बिहार में चार दशक से भी अधिक समय से केवल प्रयोग कर रही है। मगर कांग्रेस के रणनीतिकार यह नहीं समझ पाए की जिन क्षेत्रीय दलों के कारण कांग्रेस ने चार दशक से भी अधिक समय पहले बिहार की सत्ता को खोया था उन्हीं दलों से मिलकर अपनी सत्ता को बिहार में ढूंढ रहे है।
बिहार में अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल हैं जो बिहार के चुनाव को प्रभावित करते हैं, और यह दल बिहार में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को बिहार की सत्ता में आने से रोकते हैं।
यदि इन क्षेत्रीय दलों के नेताओं पर नजर डालें तो यह जब भी विधानसभा के चुनाव आते हैं तब देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस और देश की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को भ्रमित करने में जुट जाते हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों क्षेत्रीय दलों के नेताओं के जाल में फंस जाते हैं, और क्षेत्रीय दलों के नेता कांग्रेस और भाजपा के सहारे से चुनाव जीत कर दोनों ही पार्टियों को उनसे गठबंधन की शर्तों पर विवश कर देते हैं। क्या राहुल गांधी इस गणित को समझ रहे हैं। राहुल गांधी क्षेत्रीय दलों के नेताओं के इस गणित समझेंगे तो बेहतर होगा।
कांग्रेस बिहार में लोकसभा में बेहतर प्रदर्शन करती रही है। मगर विधानसभा में वह कमजोर दिखाई देती है। मतलब साफ है बिहार में कांग्रेस मौजूद है मगर जरूरत है बिहार में कांग्रेसियों को एकत्रित कर उन्हें भरोसा दिलाने की। कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों से लगातार गठबंधन कर बिहार के कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं का मनोबल कमजोर कर दिया। यही वजह है कि बिहार से बार-बार आवाज आ रही है कि कांग्रेस 2025 का विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़े। बिहार में कांग्रेस 4 दशक से सत्ता में वापसी के लिए प्रयोग कर रही है। कांग्रेस को यह भी प्रयोग कर लेना चाहिए और अपने दम पर दिल्ली की तर्ज पर चुनाव लड़ने का फैसला कर ले। लेकिन दिल्ली की तरह बिहार में कांग्रेस यह भी भूल न करे कि अपने बड़े नेताओं को चुनाव मैदान में उतार दे क्योंकि चुनाव नेता नहीं जीतते है बल्कि चुनाव जीतते हैं कार्यकर्ता।
कांग्रेस लगातार राज्यों में इसलिए चुनाव हारती आ रही है क्योंकि कांग्रेस नेताओं को अधिक और कार्यकर्ताओं को कम टिकट देती है। कांग्रेस को बिहार में कार्यकर्ताओं को अधिक से अधिक टिकट देना होगा।
बिहार में कांग्रेस का राष्ट्रीय प्रभारी बदलने के बाद इंतजार है नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा होने का। बिहार में कांग्रेस इस मुगालता में ना रहे कि कांग्रेस की कमान दलित और मुसलमान को देने से कांग्रेस बिहार में मजबूत हो जाएगी। इससे बिहार की सत्ता में वापसी कर लेगी क्योंकि बिहार में मजबूत दलित नेता है जिनके अपने राजनीतिक दल हैं और यह दल भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। ऐसे में बिहार के भीतर जीतन राम मांझी और चिराग पासवान जैसा मजबूत दलित नेता कांग्रेस के भीतर नजर नहीं आ रहा है। बिहार मैं बाबू जगजीवन राम की विरासत को उनका परिवार ही नहीं संभाल पाया। ऐसे में यह कैसे संभव होगा कि बिहार में कांग्रेस की कमान दलित को देने के बाद कांग्रेस मजबूत हो जाएगी।
कांग्रेस ने मुस्लिम नेता को पूर्व में कमान देकर प्रयोग करके देखा है। कांग्रेस को बिहार में एक ऐसा नेता चाहिए जो सभी जातियों के लोगों को एक धागे में पिरोकर बिहार में कांग्रेस को मजबूत करे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)

















