सचिन पायलट जनता के बीच मजबूत हैं, मगर दिल्ली दरबार में कमजोर ?

                                          -देवेंद्र यादव-

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देवेंद्र यादव

कांग्रेस के युवा कद्दावर नेता सचिन पायलट, राजस्थान में जनता के बीच तो मजबूत हैं, मगर, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की अपेक्षा दिल्ली दरबार में, कमजोर हैं। जनता कांग्रेस को सत्ता में तो ले आती है, मगर सत्ता को चलाने वाले नेता का चयन दिल्ली दरबार से होता है। सचिन पायलट के संदर्भ में यही बड़ा सवाल है। 2018 के विधानसभा चुनाव में, सचिन पायलट के नेतृत्व में प्रदेश की जनता ने कांग्रेस की सरकार तो बनाई, मगर दिल्ली दरबार ने सरकार का नेता अशोक गहलोत को चुना। मतलब साफ है, जनता के बीच तो सचिन पायलट मजबूत और लोकप्रिय नेता हैं, मगर दिल्ली दरबार में कमजोर नेता हैं। इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं।
सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बना कर उप मुख्यमंत्री बनाया था और कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना कर रखा था, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में राजस्थान की 25 की 25 सीटों को हारने के बाद सचिन पायलट ने एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनने का प्रयास किया और नाराज होकर अपने समर्थकों के साथ गु़डगाव के एक रिसोर्ट में जाकर बैठ गए।
इसे पार्टी हाईकमान ने पायलट की अनुशासनहीनता माना और पायलट को उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा। तब से लेकर अब तक सचिन पायलट बगैर पद के राजनीति कर रहे हैं। ना तो उनके पास सत्ता में कोई पद है और ना ही संगठन में कोई पद है। पार्टी हाईकमान ने राजस्थान में गहलोत और पायलट के झगड़े को निपटाने के लिए समन्वय समिति भी बनाई और एक के बाद एक तीन बार राष्ट्रीय प्रभारियों को भी बदला गया।
मगर संगठन से लेकर राजनीतिक नियुक्तियों में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का दबदबा दिखाई दिया। राजनीतिक नियुक्तियों में भी सचिन पायलट अपने समर्थक नेताओं को नियुक्त नहीं करवा पाए। इस बीच राज्यसभा के चुनाव भी हुए। राज्यसभा चुनाव में भी सचिन पायलट अपने पसंदीदा नेता को राज्यसभा में नहीं भेज पाए। जाहिर है, सचिन पायलट दिल्ली दरबार में अशोक गहलोत की अपेक्षा कमजोर नेता हैं।
उसी कमजोरी का नुकसान सचिन पायलट राजनीतिक तौर पर उठा रहे हैं और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दिल्ली दरबार में अपनी मजबूती का फायदा उठा रहे हैं। यदि आचार्य प्रमोद कृष्णम को छोड़ दे तो दिल्ली दरबार में सचिन पायलट की वकालत करने वाला अन्य कोई नेता नजर नहीं आता है। जबकि दिल्ली दरबार में अशोक गहलोत की पैरवी करने वाले राजनैतिक वकीलों की एक लंबी फौज है, जो समय-समय पर अशोक गहलोत की वकालत करती है। अशोक गहलोत उन वकीलों को इनाम के तौर पर राज्यसभा में भी पहुंचाते हैं।
इन दिनों राजनीतिक गलियारों में चर्चा चल रही है कि अशोक गहलोत के कई समर्थक विधायक उनसे नाराज हैं। अशोक गहलोत से विधायकों की नाराजगी की चर्चा पायलट खेमे में तेजी से सुनाई दे रही है।
मगर, राजनीतिक तौर पर देखे तो यही तो सचिन पायलट और उनके समर्थक नेताओं का मुगालता है कि अशोक गहलोत के समर्थक विधायक अशोक गहलोत से नाराज हैं। अशोक गहलोत से नाराजगी तो इन नेताओं ने 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले भी प्रकट की थी और सचिन पायलट इस मुगालते में आ गए कि अशोक गहलोत से नाराज नेता उनके समर्थन में आ गए हैं मगर इन नेताओं ने सचिन पायलट के कोटे से विधानसभा का टिकट हासिल किया और विधानसभा चुनाव जीतकर, सचिन पायलट को छोड़कर वापस अपने राजनीतिक आका अशोक गहलोत के पाले में चले गए। सवाल उठता है कि क्या सचिन पायलट 2018 की तरह 2023 में भी ऐसी भूल करेंगे, और क्या मुगालते में रहकर अशोक गहलोत से नाराज विधायकों को अपने पाले में मानकर, भ्रम में रहकर 2023 के विधानसभा चुनाव में अपने कोटे से प्रत्याशी बनाएंगे। जबकि पूर्व में सचिन पायलट भ्रम और मुगालते का शिकार हो चुके हैं जिसका खामियाजा राजनीतिक रूप से आज तक भुगत रहे हैं।
एक सवाल और खड़ा होता है क्या सचिन पायलट के पास राजस्थान के भीतर अपने स्वयं के समर्थक मजबूत नेता नहीं है, क्या सचिन पायलट अशोक गहलोत से नाराज नेताओं पर ही निर्भर हैं।
एक दशक में सचिन पायलट राजस्थान के भीतर अपने समर्थक नेताओं की टीम तैयार नहीं कर पाए बल्कि वह उन नेताओं पर निर्भर रहे जो अशोक गहलोत के द्वारा बनाए गए नेता थे। जो पहले भी गहलोत के समर्थक थे और वक्त आने पर भी वह गहलोत के समर्थक होते नजर आते हैं। यह नजारा सचिन पायलट ने 2018 में सरकार के गठन के बाद देखा है। अशोक गहलोत से नाराज नेताओं ने सचिन पायलट का दामन थाम कर विधानसभा का टिकट हासिल किया और जीतने के बाद यह नेता अशोक गहलोत के पाले में जाकर बैठ गए। क्या सचिन पायलट खुश हैं या फिर मुगालते में है कि अशोक गहलोत समर्थक विधायक गहलोत से नाराज होकर पायलट की तरफ देख रहे हैं। क्या गहलोत से नाराज विधायक 2018 की तरह 2023 में दोहराना चाहते हैं और सचिन पायलट के कोटे से विधानसभा का टिकट हासिल करना चाहते हैं।
देवेंद्र यादव, कोटा राजस्थान
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)

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