
-सुनील कुमार Sunil Kumar
तमिलनाडु के करूर नाम की जगह पर लोकप्रिय फिल्म अभिनेता विजय थलापथि की राजनीतिक रैली जानलेवा हो गई, जब वे घंटों देर से वहां पहुंचे, और इंतजार करते हुए थके हुए लोग उनके करीब आने को बेकाबू होने लगे। मंच तक पहुंचने के लिए उनके लिए जो रास्ता रखा गया था, उसे छोडक़र वे भीड़ के बीच से मंच तक जाने लगे, और उनके करीब आने को टूट पड़े लोग भगदड़ में कुचले गए। अभी दोपहर तक 40 लोग मारे जा चुके हैं जिनमें आधे से अधिक महिलाएं और बच्चे हैं। 50 से अधिक लोग बुरी तरह जख्मी हैं, और अलग-अलग अस्पतालों में हैं। अभिनेता विजय की पार्टी तमिलगा वेत्री कझगम तमिल राजनीति में सत्तारूढ़ डीएमके के खिलाफ अगले बरस का विधानसभा चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं, और इसके चलते ही कल जिन दो जगहों पर उनकी आमसभा हुई, दोनों जगह पर वे घंटों लेट पहुंचे, और पहली जगह की भगदड़ में तो मौतें नहीं हुईं, लेकिन दूसरी आमसभा में हुई मौतों के बाद इस बड़े फिल्म अभिनेता ने श्रद्धांजलि के दो शब्द भी नहीं कहे, और विशेष विमान से चेन्नई चले गया। शासन-प्रशासन का कहना है कि इस रैली के लिए पुलिस ने जो सावधानियां बरतने के लिए कहा था, इस अभिनेता की पार्टी ने उनमें से कोई बात नहीं मानी, और उसके घंटों लेट पहुंचने की वजह से लोग चक्कर खाकर गिर रहे थे, और करीब आने के लिए भगदड़ भी हो रही थी। मुख्यमंत्री ने इसे तमिलनाडु में किसी भी राजनीतिक कार्यक्रम में अब तक हुई सबसे अधिक मौतों का हादसा कहा है। उल्लेखनीय है कि तमिल राजनीति में बड़ी संख्या में फिल्मी सितारों का इतिहास रहा है, और उनमें से कुछ मुख्यमंत्री भी बने हैं। वहां पर फिल्मी सितारों के लिए भी एक ऐसी दीवानगी रहती है जो कि देश में और कहीं भी नहीं दिखती, और यही दीवानगी लोगों को राजनीतिक सफलता के आसमान पर पहुंचा देती है। तमिल फिल्मों से जुड़े सीएन अन्नादुराई फिल्म स्क्रिप्ट लिखते थे, और फिल्मों के रास्ते उन्होंने द्रविड़ आंदोलन को भी लोकप्रिय किया था। एम.जी.रामचन्द्रन तमिल फिल्मों के सुपरस्टार थे, और वे दस बरस मुख्यमंत्री रहे, उनके बाद उनकी राजनीतिक वारिस कही जाने वाली जे.जयललिता तो छह बार मुख्यमंत्री बनीं, जो कि एनजीआर के साथ ही लोकप्रिय अभिनेत्री की जोड़ी थीं। एम.करूणानिधि ने 75 से अधिक तमिल फिल्में लिखीं, और वे पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। विजयकांत, और कमल हासन जैसे कुछ लोग भी राजनीति में आए, लेकिन बहुत आगे नहीं बढ़े। अब ताजा दाखिला विजय थलपथि का है, वे 2024 में राजनीतिक दल बनाकर 2026 के चुनावों की तैयारी में लगे हुए हैं। लेकिन तमिल फिल्म और राजनीति के रिश्ते पर आज की बात खत्म करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, हम लोगों की भीड़ में भगदड़ से होने वाली मौतों की बात करना चाहते हैं। अभी कुछ अरसा पहले ही कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में क्रिकेट टीम के जीत के आने के बाद निकाले गए विजय जुलूस में भगदड़ हुई, और 11 प्रशंसक कुचलकर मारे गए, 50 से अधिक जख्मी हुए। कुछ गलत जानकारियों के चलते हुए ढाई लाख से अधिक लोग एक जगह जुट गए थे, और आयोजकों ने भीड़ काबू करने की कोई तैयारी नहीं की थी।
क्रिकेट और सिनेमा, सी से शुरू होने वाले ये दो शब्द हिन्दुस्तान में धर्म के तुरंत बाद का दर्जा रखते हैं। खबरों से लेकर वोटों तक ये दोनों चीजें लोगों को बुरी तरह प्रभावित करने की ताकत रखती हैं। इसीलिए किसी भी दूसरे खेल के मुकाबले क्रिकेट खिलाड़ी राजनीति से लेकर राज्यसभा और लोकसभा के मनोनयन तक सबसे अधिक जगह पाते हैं। इन्हीं को टक्कर देकर इनसे अधिक संख्या फिल्म से जुड़े लोगों की रहती है, जो कि राजनीतिक दलों में शामिल होते हैं, चुनाव भी लड़ते हैं, और संसद में मनोनीत भी किए जाते हैं। राजनीतिक दल भीड़ को जुटाने, और रुझाने की इनकी क्षमता अच्छी तरह जानते हैं, और इसीलिए इन्हें अपनी पार्टी में लेकर आने को एक किस्म से चुनावी जीत ही मान लिया जाता है। यहां तक कि चुनावी इस्तेमाल से परे भी बड़े-बड़े दिग्गज फिल्मकारों को संसद में मनोनीत करके राजनीतिक दल इस मनोनयन से मिली शोहरत को भी वोटरों के बीच भुना लेती है, फिर चाहे ये फिल्मकार संसद में पांच बरस में मुंह भी न खोलें। ऐसे लोग दक्षिण भारत में जब राजनीतिक दल बनाकर चुनावी मैदान में उतरते हैं, तो राजनीतिक संतुलन बदलने की एक बड़ी संभावना भी पैदा हो जाती है। आज तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डीएमके के खिलाफ विजय थलपथि के उतरने से उन तमाम राजनीतिक दलों को खुशी हुई होगी जो कि अगले चुनाव में डीएमके की शिकस्त देखना चाहते हैं। जनता में दीवानगी का हाल दक्षिण भारत में चुनाव और फिल्म दोनों में देखने मिलता है, और फिल्म स्टार नेता की बेमौसम की इस राजनीतिक रैली में लोगों की बेतहाशा भीड़ बताती है कि फिल्म से राजनीति में आकर शोहरत और कामयाबी की उम्मीद लगाना गलत नहीं है। लेकिन जिस तरह फिल्म सितारे शूटिंग पर घंटों लेट पहुंचते हैं, उसी तरह कल यह फिल्म कलाकार 6 घंटे देर से पहुंचा, और दक्षिण की तेज धूप में सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हुए लोग चक्कर खाकर गिरने लगे थे, और बाद में भीड़ बेकाबू हुई, भगदड़ में कई महिलाओं के पैर टूट गए, और रिकॉर्ड संख्या में 39 मौतें हुई हैं।
सार्वजनिक जगह पर किसी भी तरह की भीड़ हो, वह पूरी तरह से राज्य सरकार की जिम्मेदारी रहती है, और राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र का मामला रहता है। लेकिन कागज पर ली और दी जाने वाली इजाजत का जमीनी अमल से कोई लेना-देना नहीं बचता, और भीड़ इसी तरह बेकाबू और जानलेवा हो जाती है। जैसा कि बेंगलुरू की भगदड़ के बाद वहां की क्रिकेट टीम ने लोगों के लिए मुआवजे की घोषणा की थी, उसी तरह कल तमिलनाडु में इस फिल्म अभिनेता ने मरने वालों के लिए 20-20 लाख रूपए देने की घोषणा की है, लेकिन इससे बदइंतजामी, और भीड़ के बेकाबू होने में उनकी गैरजिम्मेदारी का जुर्म कम नहीं होना चाहिए। क्रिकेट हो या सिनेमा इसके कामयाब लोगों के पैसा बेतहाशा हो सकता है, लेकिन बेतहाशा पैसे को, उससे दिए जा रहे मुआवजे को आपराधिक जिम्मेदारी खत्म करने के लिए इस्तेमाल नहीं होने देना चाहिए।
भारत में शासन-प्रशासन के लोगों को भीड़-प्रबंधन की कुछ बुनियादी जरूरतों को कड़ाई से लागू करना सीखना चाहिए। जरूरत पड़े तो ऐसी जगहों के कई किलोमीटर दूर ही लोगों को रोक देना चाहिए, ताकि किसी एक जगह पर प्रबंधन-क्षमता से अधिक बड़ा जमावड़ा न हो सके। और यह बात सिर्फ क्रिकेट और सिनेमा से जुड़ी भीड़ पर लागू नहीं होती, यह बात हर किस्म की भीड़ पर लागू होती है, और जिला चलाने वाले अफसरों के साथ-साथ, कुछ प्रबंधन-विशेषज्ञों को मिलकर क्राउड-मैनेजमेंट की बुनियादी शर्तें तय करनी चाहिए। अपने पसंदीदा सितारों को देखने के लिए आम लोग तो ऐसे ही इकट्ठे होंगे, लेकिन जिन्होंने आयोजन किया है, और जो लोग इंतजाम में लगे हैं, ऐसे सारे सरकारी गैरसरकारी लोगों को बेहतर तैयारी सीखनी चाहिए। भगदड़ में मौतें इन दोनों ही तबकों की एक बड़ी असफलता है।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)