
-द ओपीनियन पॉलिटिकल डेस्क-
जम्मू। कांग्रेस के साथ करीब पांच दशक के जुड़ाव के बाद अलग हुए वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद आज 4 सितंबर को अपनी नई राजनीतिक पारी शुरू कर सकते हैं। उनकी आज जम्मू में रैली प्रस्तावित है और संभव है वे रैली के दौरान अपनी नई पार्टी के गठन की घोषणा के साथ जम्मू कश्मीर इकाई की घोषणा कर दें। जम्मू में रैली की तैयारियां जोरों पर हैं और जैसे कि उनके करीबी नेता एम ए सरूरी ने संकेत दिया है कि आजाद रैली में अपनी नई पार्टी की घोषणा कर सकते हैं। वैसे तो आजाद को लेकर कांग्रेस में भी अंदरूनी तौर पर सियासी घमासान चल रहा है लेकिन यदि आजाद इन सब बातों को छोड़कर कश्मीर पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो संभव है कांग्रेस से उनका यह अलगाव वहां कुछ सार्थक परिणाम अर्जित कर सके।
मौजूदा राजनीतिक पृष्ठभूमि में निर्वाचित सरकार का सत्ता में आना जरूरी
जम्मू कश्मीर में अभी विधानसभा चुनाव होने हैं। इन दिनों मतदाता सूचियां अपडेट हो रही हैं। नए मतदाताओं के नाम जोड़े जाने का काम चल रहा है। हालांकि गैर स्थानीय लोगों के नाम मतदाता सूची में जोड़े जाने के मसले को लेकर कुछ विवाद भी चल रहा है। गुपकार गठबंधन ने गत दिनों एक सर्वदलीय बैठक आयोजित कर इस पर चिंता भी जताई थी। लेकिन इन विवादों के बीच अहम बात यह है कि जम्मू कश्मीर में मौजूदा राजनीतिक पृष्ठभूमि में निर्वाचित सरकार सत्ता में आए और लोग उसमें भागीदार बनें। ताकि राज्य को आतंकवाद के चक्र से मुक्त बाहर निकाला जा सके।
लोकतांत्रिक ताकतों को सक्रिय करने में कामयाब हो सकते हैं आजाद
काग्रेस के साथ आजाद की राजनीतिक पारी का अंत एक अलग मसला है लेकिन कश्मीर में दस्तक देने की उनकी मंशा वहां लोकतांत्रिक ताकतों को सक्रिय एवं सही दिशा में प्रेरित करने में अहम कदम साबित हो सकती है। उनकी इस्तीफे की घोषणा के बाद से ही कांग्रेस के कई नेता पार्टी से इस्तीफा देकर आजाद से जुडने के लिए आगे आ रहे हैं। इनमें कई पूर्व मंत्री और पूर्व उपमुख्यमंत्री भी शामिल हैं। आजाद के यहां आने से सर्वाधिक सेंध कांग्रेस को लगती दिख रही है। कांग्रेस छोड़कर कई नेता उनसे जुड़ रहे हैं लेकिन जो लोग आ रहे हैं उनकी जनमास में पैठ और विश्वसनीयता की परख आजाद से जुडऩे के बाद ही होगी।
लोकतांत्रिक ताकतों को निश्चित रूप से मजबूती मिलेगी
किसी बड़ी पार्टी को छोड़कर नई पार्टी गठित कर लेना तो आसान है पर उसे एक प्रबल राजनीतिक ताकत बनाना आसान नहीं होता। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता तैयार करना और उनको जोड़े रखना आसान नहीं हैै। इसलिए आजाद के सामने भी यह चुनौती होगी। उनके जम्मू कश्मीर लौटने पर नए राजनीतिक समीकरण क्या बनेंगे यह तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में है लेकिन यदि वे इस केंद्र शासित प्रदेश में एक राजनीतिक ताकत बनकर उभरते हैं तो राज्य में लोकतांत्रिक ताकतों को निश्चित रूप से मजबूती मिलेगी और यही इस वक्त की जरूरत है। हालांकि आज आजाद खेमे के आगे चलकर भाजपा के साथ गठबंधन करने की अटकलें लग रही हैं और इसके राजनीतिक हानि लाभ के आकलन शुरू हो गए हैं। हालांकि खुद आजाद ने गत दिनों यह बात साफ कर दी थी कि इस बात की कोई संभावना नहीं है। उन्होंने साफ कहा कि यह वो भी जानते हैं मैं भाजपा के जनाधार वाले क्षेत्र में एक वोट नहीं बढ़ा सकता और मेरे क्षेत्र में भाजपा एक वोट नहीं बढ़ा सकती।
राजनीति में मिल जाते हैं विपरीत ध्रुव
आजाद के समर्थन में जो नेता आगे आए हैं वे भी यही बात कह रहे हैं। उनके समर्थन में खुलकर आगे आए जीएम सरूरी ने कहा कि उनके नेता वैचारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष हैं और उनके भाजपा के इशारे पर काम करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। सरूरी कांग्रेस की जम्मू कश्मीर इकाई के उपाध्यक्ष रह चुके हैं और उनको आजाद का विश्वास पात्र नेता माना जाता है। उनका यह भी कहना था कि उनका नया दल समाज के सभी वर्गों की एकता एवं विकास पर ध्यान केंद्रित करेगा और राज्य में पांच अगस्त 2019 के पहले की स्थिति की बहाली के लिए संघर्ष करेगा। भाजपा नीत केंद्र सरकार ने 5 अगस्त 2019 को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त कर दिया था और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया था। यही वह बिंदु है जिस पर भाजपा की राह अन्य दलों से अलग है। इसलिए यह तो समझा जा सकता है कि यदि आजाद राज्य में नई पार्टी का गठनकर जनाधार तलाश शुरू करेंगे तो वे वैचारिक रूप से कई मसलों पर भाजपा से अलग खडे ही नजर आएंगे। इसलिए गठबंधन की अभी से कोई टोह लेना संभव नहीं है। लेकिन राजनीति में विपरीत ध्रुव मिल जाते हैं। जम्मू कश्मीर में ऐसा हो चुका है और भारतीय राजनीति में भी ऐसा हुआ है जब विपरीत ध्रुवों ने किसी राजनीतिक मकसद के लिए एक साथ आकर संघर्ष किया है। इसलिए कश्मीर के लिए अभी से कोई धारणा बनाना ठीक नहीं है। वहां का सबसे बडा राजनीतिक मकसद लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित सरकार के सत्ता संभालने और आतंकवाद से प्रदेश को मुक्ति दिलाना है। इस नेक मकसद के लिए यदि राजनीतिक ताकतें इकट्ठा होती हैं तो शुभ ही कहा जाएगा। लेकिन ऐसा भी नहीं है कश्मीर में पूरी कांग्रेस आजाद के पीछे खड़ी हो जाएगी; वहां पर आजाद के इस्तीफे पर सवाल भी उठ रहे हैं।
असली चुनौती घाटी में सक्रिय आतंककारी
जम्मू कश्मीर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष जी ए मीर ने आजाद के इस्तीफे के बाद प्रदेश में पार्टी छोडने वाले नेताओं को भाजपा की ए टीम कहा है। मीर ने तो यह भी कहा था कि आजाद का हश्र भी अमरिंदर सिंह जैसा होगा। अब आजाद को जम्मू कश्मीर की राजनीति में सक्रिय होना है तो इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर आगे बढऩा होगा। असली चुनौती घाटी में सक्रिय आतंककारी हैं जो किसी भी तरह की राजनीतिक सक्रियता को बाधित करने के लिए तैयार बैठे हैं। घाटी में राजनीतिक परिदृश्य चुनाव की घोषणा के बाद ही साफ होगा। लेकिन वहां चुनाव मैदान में उतरना भी अहम होगा। कौन किसके वोट काटेगा या बढाएगा इस गणित में उलझने के बजाय चुनाव के लिए मैदान मे डटने का साहस दिखाना होगा। वहां ऐसे तत्वों की कमी नहीं है जो इस प्रक्रिया को बाधित करने के लिए तैयार बैठे हैं। आजाद से अब यही उम्मीद कर सकते हैं कि वे जम्मू कश्मीर में लोकतां़ित्रक प्रक्रिया को आगे बढाने में अहम भूमिका निभाएंगे।