पटना। विपक्षी दल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा से गठबंधन तोड़कर राजद से हाथ मिलाने के कदम को देश की राजनीति में भविष्य के नए संकेत के तौर पर देखने लगे हैं। भाजपा के महाराष्ट्र में शिव सेना में तोड़ फोड़कर एकनाथ शिंदे से हाथ मिलाकर सरकार बनाने के बाद विपक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रहा था। उस पर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के मतों में सेंध लगाने से भाजपा का 2024 के लोकसभा चुनाव से दबदबा और बढऩे के संकेत स्पष्ट नजर आने लगे लेकिन नीतीश कुमार के कदम से विपक्ष को एक बार फिर उम्मीद बनी है। इसका कारण उनका बिहार में मुख्यमंत्री के तौर पर दीर्घ अवधि का कार्यकाल और उनकी सुशासन बाबू की छवि है। नीतीश कुमार के भाजपा के साथ गठबंधन में रहने और कांग्रेस के निरंतर हाशिये पर जाने से विपक्षी एकता की बची-खुची उम्मीद तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी पर टिकी थी, लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के बेहद करीबी मंत्री पार्थ चटर्जी के शिक्षक भर्ती घोटाले में ईडी के शिकंजे में फंसने से ममता के तेवर ढीले पड़ते दिखाई दे रहे हैं। वैसे भी ममता बनर्जी एक दबंग नेता के तौर पर पश्चिम बंगाल तक ही सीमित हैं और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी कोई खास पहचान नहीं है। उनकी पार्टी का भी अखिल भारतीय स्तर पर कोई वजूद नहीं है। फिर उनके तेज तर्रार स्वभाव के कारण कांग्रेस समेत कुछ विपक्षी दल उनके साथ जाने में कतराते हैं।
हिन्दी पट्टी के मतदाताओं को स्वीकार्य हो सकते हैं
इसके विपरीत नीतीश कुमार शांत और गंभीर स्वभाव के नेता हैं और बहुत सोच विचार के साथ ही अपनी बात रखते हैं। उनके लिए सबसे बड़ी बात हिन्दी भाषी क्षेत्र का प्रतिनिधि होना है। वे न केवल बिहार बल्कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और हरियाणा जैसे हिन्दी पट्टी के मतदाताओं को स्वीकार्य हो सकते हैं। नीतीश कुमार ओबीसी से हैं और हिन्दी पट्टी के राज्यों में ओबीसी मतदाताओं की बहुलता है ये मतदाता चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में सक्षम हैं। इसके अलावा भाजपा के साथ रहने के बावजूद नीतीश की मुसलमानों के बीच छवि ठीक-ठाक है। आठवीं बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा है। यही छवि उन्हें अन्य विपक्षी नेताओं में अलग खड़ा करती है। अपने स्वभाव और साफ छवि की वजह से नीतीश कुमार तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी के विपरीत वामपंथियों के लिए भी स्वीकार्य होंगे। यदि मीडिया रिपोर्ट को सही माना जाए तो भाजपा का अगला निशाना ओडिसा में बीजू जनता दल और मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हैं। ऐसे में वह भी अब विपक्षी खेमे में अलग-थलग नहीं रह पाएंगे। विपक्ष दक्षिण में कर्नाटक को छोड़कर अन्य राज्यों में भाजपा का प्रभाव नहीं होने से राहत ले सकता है और अब नीतिश के भाजपा से अलग होने से उत्तर भारत में चुनौती देने की स्थिति में आने की उम्मीद पालने लगा है।
नीतीश कुमार ने विकल्प तलाशना जारी रखा
यह भी माना जाता है कि नीतीश कुमार भले ही बिहार के मुख्यमंत्री रहे हों लेकिन उनकी हमेशा राष्ट्रीय राजनीति के प्रति दिलचस्पी बनी रही। वह जब पहली बार भाजपा से अलग होकर महागठबंधन में शामिल हुए थे तब भी विपक्ष की उन पर निगाह थी लेकिन परिस्थितियों के कारण उन्हें पुन: भाजपा का दामन थामना पड़ गया। अब एक बार फिर उनके भाजपा से छिटकने से विपक्ष नई उम्मीद के तौर पर देख रहा है। बिहार विधानसभा के 2020 के चुनाव में नीतिश की जद यू से कहीं ज्यादा सीटें लेकर भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी तो प्रदेश भाजपा के नेताओं ने नीतीश कुमार को घेरने की कोशिश की। हालांकि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने नीतीश कुमार में ही विश्वास जताया लेकिन प्रदेश स्तरीय नेता आए दिन टीका टिप्पणी करने से बाज नहीं आ रहे थे। ऐसे में राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार ने विकल्प तलाशना जारी रखा और तेजस्वी यादव से पुन: रिश्ते पटरी पर लाने की कोशिश की। उन्होंने अन्य विपक्षी दलों से भी सम्पर्क साधा। अब वह राष्ट्रीय परिदृश्य पर आने के लिए नए सिरे से प्रयास कर सकते हैं।