-शैलेश पाण्डेय-
हर स्तर पर राजनीतिक और सरकारी दखलंदाजी से भारत में खेलों पर जिस तरह का दुष्प्रभाव पड़ता है उसकी बानगी अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ (एआईएफएफ) पर फुटबाल की सर्वोच्च संचालन संस्था फीफा के लगाए प्रतिबंध से देखने को मिल रही है। यह पहला मौका नहीं है जब भारत को किसी अंतरराष्ट्रीय खेल महासंघ की ओर से इस तरह की प्रतिबंधात्मक शर्म को झेलना पड़ा है। एक ओर हम नीरज चोपडा और पीवी सिंधू जैसे अनेकानेक प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों के दम पर अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में धाक जमाने की ओर बढ़ रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में विभिन्न खेल स्पद्र्धाओं में हमारे खिलाडिय़ों की जबरदस्त पदकीय सफलता और हाल ही में इतिहास में पहली बार थामस कप की खिताबी जीत इसका जीता जागता उदाहरण है , दूसरी ओर खेल संघों में राजनीतिक और सरकारी दखल इन उपलब्धियों पर पानी फेर रहा है। क्रिकेट जैसे खेल में अकूत पैसा और अन्य खेलों में मीडिया की सुर्खियां, विदेश दौरे, खुद के प्रचार में बने रहने का मौका और अन्य ऐसी अनेकों सुविधाओं की वजह से राजनीतिज्ञ अपने रसूख के दम पर खेल संघों पर काबिज हो जाते हैं। भारतीय फुटबाल महासंघ में पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल का रहा वर्चस्व तो एक उदाहरण मात्र है। अनेक खेल संघ राजनीतिज्ञों या ऐसे ही रसूखदारों और धनपतियों के दबदबे से दबे हुए हैं। एक बार ऐसे रसूखदार लोग जब खेल संघ में प्रवेश पा जाते हैं तो फिर खेल प्रशासक, खिलाड़ी और खेल तो दरकिनार कर दिए जाते हैं और फिर खेल संघ राजनीति का अखाड़ा बन जाते हैं। इन रसूखदारों का प्रयास येन केन प्रकारेण खेल संघों पर काबिज रह कर खेल और खिलाडियों की बजाय अपने हितों का पोषण करना रहता है। फीफा ने भारतीय फुटबाल महासंघ पर प्रतिबंध तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के आधार पर लगाया है। लेकिन तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के कारणों को भी देखना होगा। तीन बार के कार्यकाल की समाप्ति के बावजूद प्रफुल्ल पटेल ने फुटबाल महासंघ के चुनाव नहीं कराए। एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जब भारतीय खेल मकडज़ाल में फंसने की वजह से उबर नहीं पा रहे हैं।
नि:संदेह भारत जैसे देश में बगैर धन के खेल और खिलाड़ी नहीं पनप सकते। खेल सुविधाओं और आयोजनों में धन की जरूरत होती है जिसकी पूर्ति खिलाडिय़ों और खेल प्रशासकों के वश में नहीं होती और मजबूरन ऐसे रसूखदारों की शरण लेनी पड़ती है जो न केवल पैसा निवेश करें बल्कि राजनीतिक दबदबे से प्रायोजक भी ला सकें। यहीं से खेलों के दुष्चक्र में फंसने का सिलसिला शुरू हो जाता है और देखते ही देखते ये रसूखदार खेल संघों पर वर्चस्व जमा लेतेे हैं। खेलों की सरकारी स्तर पर हालत किसी से छिपी नहीं है। राजस्थान में खेलों को बढ़ावा देेने के नाम पर ग्रामीण ओलम्पिक खेलों का आयोजन किया जा रहा है लेकिन मीडिया रिपोर्ट को सही मानें तो राज्य सरकार की ओर से आयोजन की जिम्मेदारी के बावजूद धन का टोटा है। यह आयोजन कितना सफल होता है यह तो वक्त ही बताएगा। राष्ट्रीय स्तर पर खेलो इंडिया जैसी योजनाओं के कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही हैं। खेल अकादमियां खोल तो दी जाती हैं लेकिन इनमें अयोग्य लोगों की नियुक्तियां, गैर पेशेवर संचालन, संसाधनों का अभाव और स्तरहीन खिलाडिय़ों और कोचिंग स्टॉफ का चयन इस सारी कवायद पर पानी फेर देता है। राजस्थान की खेल अकादमियों की हालत से इसको समझा जा सकता है क्योंकि ये अपनी भूमिका में खरी होती तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदेश के खिलाडिय़ों का अव्वल स्थान पर होता। विडम्बना यह है कि हरियाणा और पंजाब या दक्षिण भारत के राज्यों के मुकाबले राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश जैसे हिन्दी पट्टी के घनी आबादी वाले राज्यों का खेलों में योगदान नगण्य है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक विजेताओं और विभिन्न खेलों की भारतीय टीमों में प्रतिनिधित्व करने वाले इन राज्यों के खिलाडिय़ों की संख्या से इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। संभवतया इन्हीं राज्यों में खेलों में पॉलिटिक्स भी सर्वाधिक है। यदि ऐसी ही स्थिति बनी रही तो खेलों में छिटपुट सफलताओं को छोड़कर भविष्य में भी विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देश को ओलंपिक और विश्व चैम्पियनशिप की पदक तालिका में नाम ढूंढना पड़ता रहेगा।
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खेल व्यवस्थाओं पर तर्कसंगत टिप्पणी।
खेल संस्थाओं में राजनीति तथा धन बल का वार्चस्व जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा है। जिला स्तर पर प्रभावशाली लोगों के फिसड्डी खिलाड़ी अपने रसूखों से चयनित हो जाते हैं और प्रतिभा देखते रह जाती है। कमोवेश यही स्थिति राष्ट्रीय स्तर तक हो रही है। रही सही शाख भारतीय खेल संघों के हाथों हो रही है।