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-राजेश खण्डेलवाल-
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
मानव जीवन से अज्ञानता रूपी अंधकार को मिटाना ही मेरा मूल ध्येय है। तम से उजाले की ओर ले जाने को मैं ध्यानमग्न ही नहीं रहता, अपने लक्ष्य से टस से मस तक नहीं होता। मेरी थकान तब काफूर हो जाती है, जब शिष्य बुलंदी छूता है। भवसागर पार कराने का वैतरणी रूपी जरिया भी हूं पर बदलते वक्त से तो खुद को बचा नहीं पाने का मलाल हर घड़ी अखरता है। अब तो गुरू पर्व भी औपचारिताओं तक सिमट सा गया है। कलियुगी छाया तो मेरी अपार महिमा तक को धूमिल करने लगी है। मुझे भगवान से बड़ा माना जाता है पर कलंकित तो मैं तब होता हूं, जब मेरे कुछ अपने (गुरू) कुकृत्य ही नहीं, दुष्कर्म तक कर बैठते हैं।
उद्भव के साथ ही मेरा सम्मान होने लगता है, जिसे कायम रखना मेरा नैतिक धर्म और कर्तव्य है, पर स्वाभिमान को ठेस तो तब पहुंचती है, जब मेरी जमात के कुछ अनैतिक ही नहीं, अधर्मी तक हो जाते हैं। हर मानव को मैं सबसे पहले मां स्वरूप में मिलता हूं, तभी तो जननी को प्रथम गुरू का दर्जा प्राप्त है। फिर अक्षर ज्ञान कराने के नाते मिलता हूं। उसके बाद तो मैं जीवनभर उसे किसी ना किसी रूप में मिलता ही रहता हूं। कर्म पथ ही नहीं, कर्तव्य पथ और धर्म पथ का मार्ग भी मैं ही दिखाता हूं। मानव जीवन में मेरा योगदान मात्र उसकी पढ़ाई तक सीमित नहीं, अंतिम सांस तक होता है। फर्क सिर्फ इतना होता है कि मेरी सार्थकता के मायने बदल जाते हैं और तब मैं पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक, उस्ताद जैसे शब्दों से अलंकृत होता हूं। मेरी कोई जात नहीं होती और कर्म ही मेरा धर्म है पर बदलते दौर में तो ऐसा धर्मगुरू बन गया हूं, जो जातियों में बंटा नजर आता हूं। रूप-स्वरूप ही नहीं, मेरे नाम भी बहुतेरे रहे हैं। सबसे पहले मुझे गुरूदेव कहलाने का सौभाग्य मिला, जो आज भी जीवंत है। फिर गुरूजी, मास्साब, मास्टर जी, आचार्य, अध्यापक, शिक्षक और अब सर कहलाने लगा हूं। कुछ तो मुझे आज भी उस्ताद कहते ही नहीं, मानते भी हैं। पहले मैं गुरुकुलों में ही रहता। फिर पाठशालाओं में मिलने लगा। इसके बाद स्कूलों में जा पहुंचा और अब कोचिंगों में भी विद्यमान हूं। मैं जानता ही नहीं, मानता भी हूं कि जीवकोपार्जन के लिए धनार्जन जरूरी है, लेकिन पहले मैं कभी इसके पीछे नहीं भागा पर अब मेरे अपने कोई मौका भी नहीं चूकते। वेदना तो तब होती है, जब यह सुनना पड़ता है कि मैं लोभी ही नहीं, लालची सा हो गया हूं। ऐसा सुनना मेरी विवशता है, क्योंकि मेरी बिरादरी के कुछ ट्यूशन ही नहीं करते, बल्कि बहुधंधी हो गए हैं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कुछ तो गोरख धंधेबाज तक बन गए।
पहले मेरा काम सिर्फ विद्यादान था पर अब ऐसा नहीं है। जनगणना, पशुगणना, टीकाकरण, चुनाव और मतगणना जैसा काम भी मेरे ही जिम्मे होते हैं। अब तो पोषाहार के लिए रसोईया तक की भूमिका निभा रहा हूं। ऐसे में मेरा मूल उद्देश्य से भटकना स्वाभाविक है पर मैं चाह भी कर कुछ नहीं कर पाता। इन्हीं वजहों के चलते कई बार तो बेवजह दोषी ही नहीं, पाप का भागीदार भी बन बैठता हूं। तंत्र की खामियां भी मैं खूब सहता हूं। कहीं पर्याप्त स्टाफ नहीं होता तो कहीं साधन-संसाधन अपर्याप्त होते हैं। कहीं बैठने को ठौर नहीं तो कहीं मेरा जोर नहीं चलता। ऐसे ही कारणों से ज्ञान प्राप्ति की चाह रखने वालों की राह में रोड़ा बनने की मजबूरी तो मेरी पीड़ा बढ़ा देती है। असहनीय दर्द तो मुझे तब होता है, जब शिक्षा रूपी मंदिर को ताला जडऩे तक को मजबूर होता हूं।
अनीति तो मेरे साथ तब भी कम नहीं होती, जब नीतिगत अभाव का दंश सहने के साथ दु:खी होता रहता हूं। बेइज्जत तो तब भी होता हूं, जब गुरू दक्षिणा का असल हकदार होने के बाद भी इधर-उधर (तबादला) होने तक को मुझे भेंट (रिश्वत) देने को बाध्य होना पड़ता है। डूब मरना तो तब होता है, जब मेरे ही कुछ समुदाय की अगुवाई करने वाले तंत्र के सुर में सुर मिलाकर मेरा शोषण ही नहीं कराते, बल्कि मुझे भी पथभ्रष्ट बना देते हैं। निजी संस्थानों में तो मेरा ज्ञान अब व्यापार बन चुका है, जहां हो रही दुर्दशा को शब्दों में बयां करना मुश्किल है। फर्जी डिग्री तो गलफांस से कम नहीं है, जो मेरी साख को बट्टा तो लगा ही रहीं हैं, प्रतिष्ठा को भी धूमिल करने पर आमादा हैं। लज्जित तो मैं तब होता हूं, जब मेरे कुछ अपने दक्षिणा (रिश्वत) ही नहीं, लाज तक मांगने से नहीं चूकते। कई बार शिक्षालयों में लाड़लियों की अस्मत से खिलवाड़ के किस्से सुनकर तो मुझे खुद की ही इज्जत तार-तार होती दिखती है। बांटने से ज्ञान बढ़ता है, इसे आत्मसात ही नहीं करता, बल्कि इसका अनुकरण भी करता हूं, लेकिन बुरा तब लगता है, जब यह सुनना पड़ता है कि ज्ञान बांट रहा है। उन शिष्यों को तो क्या कहूं, जो मेरे चाहने पर भी कुछ सीखना नहीं चाहते। मेरा कोई शिष्य जब बड़ा काम करता है तो मैं प्रफूल्लित होता रहता हूं, पर मेरे लिए वह क्षण कम कष्टकारी नहीं होते, जब वही शिष्य बड़ा होकर बड़ा ही नहीं बन बैठता, बल्कि मुझे भुला देने जैसी भूल भी कर बैठता है। समाज में आज भी मेरा मान बरकरार है, हालांकि पहले से कुछ कम जरूर हुआ है पर इसमें दोष किसका है? सम्मान पाने के मोह में मेरे अपने ऐसी मनमर्जी करते हैं कि जानबूझकर भी फर्जी अर्जी लगाने से बाज नहीं आते और यह भूल जाते हैं कि आत्म सम्मान ही मेरे अस्तित्व की धुरी है पर जब मेरे अपनों का ही वजूद डोलने लगे तो फिर दोष किसके सिर मढंू?, तभी तो गुरूघंटाल जैसे शब्द मेरे कानों में गूंजने लगते हैं। मैं आधुनिक दौड़ में भी पीछे नहीं हूं। अब ऑनलाइन पढ़ाता ही नहीं, सिखाने भी लगा हूं। सलाह-मशविरा भी दे देता हूं। हालांकि पुराने जमाने के मेरे कुछ अपनों को तकनीकी अभाव खलता है पर मेरी दृढ़ इच्छा शक्ति इस मुश्किल से पार भी पा लेती है और शायद यही मेरी महिमा अपरम्पार होने का आधार भी है। मेरी महत्ता का बखान तो संत कबीर वाणी में भी यूं किया है।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।
तात्पर्य यही है कि गुरू का दर्जा भगवान से बड़ा बताया है। इसलिए गुरू के बिना ज्ञान की प्राप्ति अंसभव है।
कबीरदास जी यह भी मानते हैं…
कबीरा ते नर अंध है, गुरू को कहते और।
हरि रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठे नहीं ठौर।।
अर्थात भगवान के रूठने पर तो गुरू की शरण रक्षा कर सकती है पर गुरू के रूठने पर कहीं भी शरण पाना संभव नहीं है। तभी तो कहा जाता है…
गुरुब्र्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरा:।
गुरुरेव परंब्रह्मा, तस्मैश्री गुरुवे नम:।।
यानि गुरू ही ब्रह्मा है और गुरू ही विष्णु है और गुरू ही भगवान शंकर हैं। गुरू ही साक्षात परब्रह्म भी हैं। ऐसे गुरू को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूं।

(मन दर्पण पुस्तक से साभार)

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