
ग़ज़ल
शकूर अनवर
तुम्हें पसंद किया, थी नज़र की मजबूरी।
न मिल सके तो हुई उम्र भर की मजबूरी।।
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तुम अपनी मस्त निगाहों का फ़ैज़* आम करो।
मुसाफ़िरों का सुकूॅं है शजर* की मजबूरी।।
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अभी तो साक़ी ए ग़ाफ़िल* शराब दे मुझको।
कभी बताऊॅंगा दिल और जिगर की मजबूरी।।
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सरापा* हुस्न ज़रूरी है शायरी के लिये।
जमाले यार* तो है इस हुनर की मजबूरी।।
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उसे तो सिर्फ़ बहाना बनाना लाज़िम था।
कुछ ऐसी ख़ास न थी फ़ितना गर* की मजबूरी।।
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लगा है दाव पे ईमान क्या करें “अनवर”।
कहाॅं पे खींच के लाई है घर की मजबूरी।।
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फ़ैज़* कृपाऐं महरबानी
शजर* पेड़
साक़ी ए ग़ाफ़िल* ऐसा शराब परोसने वाला जो ध्यान नहीं दे रहा हो
सरापा* सर से पैर तक
जमाले यार* प्रेमिका की सुंदरता
फ़ितना गर* फ़ितना फैलाने वाला, शरारत करने वाला
शकूर अनवर
9460851271