
-देवेन्द्र कुमार शर्मा-

इसे मनुष्य की अय्याशी कहा जाएगा या प्रकृति के प्रति उदासीनता कि एक सामान्य सामाजिक कार्यक्रम के आयोजन में ही ढेर सारा प्लास्टिक और पेपर कप का कचरा जमा हो जाता है। पानी पीने के लिए अगर कांच या स्टील के गिलास मंगाए जाएं तो उनको धोने की जहमत कौन उठाए। इसलिए यूज एण्ड थ्रो अर्थात् इस्तेमाल करो और फेंक दो वाली संस्कृति देश में चारों ओर फैल चुकी है। एक आदमी अगर चार बार पानी पीता है तो चार कप खराब कर देता है।
अगर प्लास्टिक का कप है तो वो कभी नष्ट न होने वाले कचरे में बदल जाता है। अगर कप कागज का भी है तो जरा सोचिए इस अय्याशी के लिए रोजाना कितने पेड़ों की बलि चढ़ा दी जाती है। क्या इस पर किसी का ध्यान जाता है।
एक तो बढ़ती जनसंख्या ऊपर से ये फिजूल खर्ची, प्रकृति के अत्यधिक दोहन के कारण आज पर्यावरण का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ चुका है।
वर्तमान पीढ़ी को तो पता नहीं लेकिन हमने वो ज़माना देखा है जब कांच के गिलासों में पानी पिलाया जाता था और एक गिलास को धोने के बाद उसका बार-बार उपयोग होता था।

अब तो पानी पिया और गिलास को कचरे में फेंका। ये कचरा या तो नालियों में जमा होता है और बरसात में जलभराव का कारण बनता है या फिर समुद्र में जा कर वहां उस वनस्पति को ढक रहा है जो समुद्री जीवों के लिए ऑक्सीजन पैदा करती है। प्रकृति पर मानव के इस अत्याचार से धरती माता कराह रही है और उसकी पीड़ा असहनीय होती जा रही है। इसी का कारण है कि पृथ्वी पर पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। जहां कभी बरसात नहीं होती थी वहां अब बाढ़ आ रही है। कहीं पर हिमपात इतना अधिक हो रहा है कि सब कुछ बर्फ में दफन हो रहा है।
क्या हम प्लास्टिक और इन कागज के गिलासों, प्लेटों आदि का उपयोग बंद नही कर सकते। बिलकुल कर सकते हैं। कांच और स्टील के बर्तनों को पुनः उपयोग में ला कर।
इसका उदाहरण आप को सिक्खों के गुरुद्वारों में मिल जाएगा जहां हजारों लोग रोज लंगर में प्रसाद छकते हैं लेकिन वहां कहीं भी प्लास्टिक और कागज के डिस्पोजेबल बर्तनों का उपयोग नहीं होता है।
आज लाखों टन प्लास्टिक का कचरा समुद्र में जमा हो रहा है और समुद्र में जितने जीव नहीं हैं उस से ज्यादा प्लास्टिक और पॉलीथिन है।
(लेखक रेलवे के सेवानिवृत अधिकारी हैं और पर्यावरण, वन्य जीव एवं पक्षियों के अध्ययन के क्षेत्र में कार्यरत हैं)