भूली बिसरी यादें: स्कूल में सजा

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photo courtesy pixabay.com

-मनु वाशिष्ठ-

manu vashishth
मनु वशिष्ठ

बचपन के दिन भी अजीब होते हैं, बचपन में जल्द से जल्द बड़ा होना चाहते हैं और बड़े होने पर बचपन को याद करते हैं। बचपन में हम जैसे कई लोग हैं, जो रेल/ बस यात्रा में आधी नहीं, पूरी टिकट की ख्वाहिश रखते थे। बचपन के दिनों को कोई कैसे भूल सकता है। खास तौर पर स्कूल के दिन जब गृह कार्य नहीं करने पर टीचर्स (सरकारी स्कूलों में “मास्टरजी /बहन जी” यही शब्द प्रयोग किए जाते थे) का बैंच पर हाथ उठा कर खड़े होने का आदेश हो या क्लास के बाहर मुर्गा बनाया जाना। ये सब आम घटनाएं होती थीं।
अभी कुछ दिन पहले हाई कोर्ट का, स्कूल में बच्चों की मारपीट में अध्यापक पर सजा को लेकर अहम फैसला आया, जिससे पुरानी यादें ताजा हो गईं। छात्रों में अच्छा चरित्र विकसित करने के लिए कभी कभी शिक्षक को कठोर होना पड़ता है। शिक्षक को समाज में सबसे अधिक सम्मान दिया जाता था। ना बच्चों का ना ही पैरंट्स का कोई ईगो हर्ट होता था। हथेली पर स्केल या पतली गीली संटी (जिसकी तो हवा में भी आवाज शूं शूं आती थी) से बच्चों की ना जाने कितनी बार आवभगत होती थी। कई बार अंगुलियों में पेंसिल फंसाना तो जान ही निकाल देता था। पता नहीं क्यों? गणित के टीचर हमेशा कड़क मिजाज हुआ करते थे, और उनका सबसे खतरनाक कृत्य होता था, पीछे मुड़ो! और बच्चे “नईं मास्टर जी नईं मास्टर जी” अब आगे से सही करूंगा, करते हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते रहते। फिर भी एक दो तो संटी पिछवाड़े पर पड़ ही जाती। एक बार टीचर ने मुझ से साथ वाले लड़के को सजा के तौर पर थप्पड़ लगाने को कहा, ना लगाते बना ना छोड़ते, खैर टीचर ने ही दो चार लगा दिए। उसके बाद भी ना कोई शिकायत ना शान में कमी। रेसिस (आधी छुट्टी यानि इंटरवल, पुराने शब्द भी अच्छे लगते हैं) या छुट्टी में सब ठीक। आजकल तो बच्चों को इतना लाड़ प्यार (pamper) किया जाता है, संवेदनशील हो गए हैं, कि पता ही नहीं लगता, कब क्या बुरा लग जाए। और बच्चे क्या कर बैठें, जिसका खामियाजा सभी को भुगतना पड़े।
पहले शिक्षकों को समाज में सबसे अधिक सम्मान दिया जाता था। लेकिन अब शिक्षक बनने में दिलचस्पी दिखाई नहीं देती, क्योंकि आजकल इसे कमतर आंका जाता है, यही वजह है कोचिंग संस्थानों को बढ़ावा मिल रहा है। शिक्षक शिक्षा प्रणाली की रीढ़ हैं, बच्चों का भविष्य संवारने में उनकी अहम भूमिका है। यदि शिक्षक कुछ मामलों में, विशेष रूप से बच्चों को दंड देते समय बच्चों या उनके पैरंट्स से डरते हैं, तो स्कूलों में अनुशासन बनाए रखना, उचित शिक्षा देना कठिन होगा। कुछ मामलों में टीचर्स भी गुनहगार होते हैं, मानवीय मूल्यों का ह्वास तो सभी क्षेत्रों में हो रहा है।
शुक्र है अब अदालत के फैसले के अनुसार छात्रों अनुशासन बनाए रखने के लिए, डांटना या उचित सजा देना अपराध नहीं होगा। सोचना होगा जिन्होंने भी शिखर को छुआ है, उसमें गुरुओं/शिक्षकों की महती भूमिका होती है। इसलिए शुक्रगुजार होइए अपने शिक्षकों के लिए (अपवादों को छोड़कर), जो छात्रों को न केवल शिक्षा बल्कि जीवन के सभी पहलुओं के लिए तैयार करते हैं। जिससे भविष्य में वे अच्छे प्रकृति और व्यवहार के व्यक्ति बन सकें।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान

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