कुहू कुहू बोलो कोयलिया

कोयल बिन बगिया

-प्रतिभा नैथानी-

pratibha naithani
प्रतिभा नैथानी

आंगन पर किसी पीली साड़ी सी पसरी धूप ने मुझे कोयल की कुहू- कुहू याद दिलाई है । कभी धूप , कभी बादल, कहीं पानी, कहीं बर्फ़ के साथ रंग बदलते मौसम के कारण हो रही ठंड से कोयल भ्रमित हो गई है। धरती से आसमान तक ‘बोले रे पपीहरा’ का दृश्य देखकर वह समझ नहीं पा रही कि यह उसकी ऋतु है। जो हमारे लिए गीत है , असल में नर कोयल की वह पुकार मादा के लिए प्रेम संदेश है।

कोयल के लिए हमें आंगन में दाने नहीं डालने पड़ते । आम की बौर, फल-फूल और कीड़े-मकोड़े इसका भोजन है। इसलिए यह पेड़ों पर ही बैठी मिलती है।
बैसाख शुरू होते ही दिन-प्रतिदिन तेज़ होती धूप के साथ बसंत अवसान पर है मगर कुदरत इस ताप में पिघलकर कुंदन हुई जा रही है। आम के पेड़ों पर छककर आया बौर बेमौसम बारिश की बौछार से भले ही कुछ कम हो गया है फिर भी मादक खुशबू लिए चिकने, कोमल पत्तों की बांह पसारे आम के पेड़ अब कोयल को पास बुलाना चाहते हैं। खोई-खोई आंखों को कुछ हरे, कुछ धानी रंग के चमकीले पत्तों पर पड़ रही सूरज की धूप कितनी सुहानी लग रही है। बीते दो-तीन दिनों से उजले आसमान ने उम्मीद बंधाई है कि शायद अब कोयल की कूक सुनाई दे।

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