अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए जरूरी फ़ैसला

-देशबन्धु में संपादकीय 

बॉम्बे हाईकोर्ट ने शुक्रवार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अदालत ने केंद्र सरकार की तरफ से पिछले साल लाए गए इंफॉर्मेशन टेक्नालॉजी संशोधित नियम- 2023 में किए गए फैक्ट चेक यूनिट गठन के प्रावधान को निरस्त कर दिया है। इस फैसले को सुनाते हुए जस्टिस अतुल चांदुरकर ने माना कि एफ़सीयू संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार), 19 (बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी), 191-जी (पेशे के अधिकार) और 21 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। आईटी नियमों में फ़र्ज़ी, भ्रामक और झूठ जैसे शब्दों की व्याख्या पूरी तरह से अस्पष्ट है, जो तार्किकता की कसौटी पर ख़री नहीं उतरती है।

दरअसल केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म फ़ेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब आदि पर फ़र्ज़ी, भ्रामक और झूठी ख़बरों पर शिकंजा कसने के उद्देश्य से फैक्ट चेक यूनिट की व्यवस्था बनाई थी, ताकि सरकार के कामकाज की सही और सटीक सूचनाएं नागरिकों तक पहुंचे। इस व्यवस्था में यदि सोशल मीडिया में कोई झूठी ख़बर डाली जाती है, तो एफसीयू उसे चिन्हित करेगा, फिर उसे वहां से हटाया जायेगा। लेकिन चर्चित स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा समेत कुछ और याचिकाकर्ताओं ने इस प्रावधान के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। उनका कहना था कि ये संशोधन अभिव्यक्ति और विचारों की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध लगा देगा। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इन प्रावधानों से ऑनलाइन कंटेंट पर सरकारी सेंसरशिप लग जाएगी। सरकार को इस बात का ‘अभियोजक, जज’ बनने का मौका मिल जाएगा कि ऑनलाइन क्या ‘सत्य’ पेश किया जाएगा।

इस याचिका पर जनवरी, 2024 में हाई कोर्ट की जस्टिस पटेल और जस्टिस नीला गोखले की बेंच ने विभाजित फ़ैसला सुनाया था। जस्टिस पटेल के मुताबिक, एफ़सीयू ऑनलाइन सूचनाओं पर एक सेंसरशिप का काम करेगा। वहीं जस्टिस गोखले के अनुसार, एफ़सीयू दुर्भावना से भरी सूचनाओं को फ़ैलने से रोकेगा। केवल एफ़सीयू के दुरुपयोग की संभावना के आधार पर इसे अमान्य नहीं किया जा सकता है। हाईकोर्ट का फैसला आने के इंतजार में फैक्ट-चेक यूनिट संचालित करने के नोटिफिकेशन पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मार्च में स्टे लगा दिया था, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि केंद्र इस मामले में तब तक आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक बॉम्बे हाई कोर्ट इसकी संवैधानिक वैधता पर निर्णय नहीं लेता है। दो जजों की मतभिन्नता को देखते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डी.के. उपाध्याय ने केस को तीसरे जज चांदूरकर के पास भेजा था। जिन्होंने शुक्रवार को यह माना है कि एफ़सीयू की व्यवस्था असंवैधानिक है।

इस फ़ैसले को इस नजरिए से ऐतिहासिक कहा जा सकता है कि इससे एक तरफ अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा हुई है, दूसरी तरफ संविधान प्रदत्त अधिकारों पर परोक्ष तरीके से रोक लगाने की कोशिश को रद्द किया गया है। केंद्र सरकार के इरादे भले दुर्भावनापूर्ण सूचनाओं के प्रसार को रोकने के रहे हों, लेकिन जिस तरह से अंकुश लगाने की कोशिश सरकार कर रही थी, उसमें यह आशंका लगातार बनी रहती कि दुर्भावना का पैमाना सरकार की सुविधा के मुताबिक ही तय किया जाता। मोदी सरकार के कार्यकाल की शुरुआत से ही मीडिया के एक बड़े तबके पर किस तरह पूंजीपतियों और सरकारी तंत्र का शिकंजा कसा जा चुका है, यह अब उद्घाटित सत्य है। दूरदर्शन तो पूरी तरह पक्षपाती रवैया प्रदर्शित करता है, इसके साथ-साथ निजी चैनल भी निष्पक्षता का त्याग कर चुके हैं। कई चैनलों के एंकर खुलकर प्रधानमंत्री मोदी के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त करते हैं। अपनी आस्था जाहिर करने के लिए चैनलों में भाजपा के विरोधी दलों के लिए कितनी भ्रामक ख़बरें फैलाई जा सकती हैं, या सांप्रदायिक एजेंडा तय किया जा सकता है, इसकी होड़ लगी रहती है।

ताज़ा उदाहरण तिरुपति के लड्डू विवाद का है, जिसमें कांग्रेस का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन कुछ चैनलों ने इसमें खुलकर कांग्रेस पर दोषारोपण की कोशिश की। एक चैनल ने तो बाकायदा अपने थंबनेल, यानी कार्यक्रम के शीर्षक में इसे कांग्रेस का षड्यंत्र करार दे दिया। जबकि आंध्रप्रदेश में पहले वायएसआर कांग्रेस की सरकार थी, जगनमोहन रेड्डी मुख्यमंत्री थे और अभी चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी की सरकार है। दोनों ही दल कांग्रेस विरोधी हैं, बल्कि टीडीपी तो एनडीए में भाजपा की साथी है। ऐसे में कांग्रेस पर ऊंगली उठाने या उसे षड्यंत्र का आरोपी बनाने का सीधा मतलब यही है कि न्यूज़ चैनल भाजपा की मदद के लिए कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं और जनता तक भ्रामक जानकारी पहुंचा रहे हैं।

केंद्र सरकार कह सकती है कि खबर का यह फर्जीवाड़ा न्यूज चैनल पर हुआ है, सोशल मीडिया पर नहीं। लेकिन इसके लिए दूसरा उदाहरण भी दिया जा सकता है। राहुल गांधी ने अमेरिका में सिखों का उदाहरण देकर धार्मिक स्वतंत्रता के बारे में जो बयान दिया या जाति का भेद खत्म होने पर ही आरक्षण खत्म किया जा सकता है, यह कहा था, लेकिन इन दोनों बयानों को पूरी तरह से तोड़-मरोड़ कर सोशल मीडिया पर झूठ फैलाया गया। खुद भाजपा आईटी सेल के लोगों ने इसे प्रसारित किया और फिर इसी झूठी ख़बर को आधार बनाकर भाजपा नेताओं ने राहुल गांधी के लिए जानलेवा धमकियां दीं। अगर सरकार का इरादा वाकई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज, दुर्भावनापूर्ण ख़बरों को रोकना था, तो इसकी शुरुआत भाजपा के सोशल मीडिया मंचों से होती तब इसका अच्छा संदेश जनता के बीच जाता। लेकिन अभी तो यही दिखाई दे रहा है कि फैक्ट चेक के नाम पर सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर सरकार विरोधी खबरों को रोकना ही असली मकसद था। रेडियो, टीवी, अखबार, पत्रिकाओं के साथ-साथ सरकार का सोशल मीडिया पर काबू होगा, तब लोकतंत्र के लिए आदर्श स्थिति नहीं रहेगी, क्योंकि केवल सरकार का पक्ष ही सामने आएगा, विपक्ष और जनता के मन की बात नहीं सुनाई देगी।

फ़िलहाल बॉम्बे हाईकोर्ट के फ़ैसले से लोकतंत्र पर मंडराता हुआ ख़तरा टल गया है। इसके लिए कुणाल कामरा को धन्यवाद दिया जा सकता है, जिन्होंने एक ज़रूरी कदम उठाया।

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