खुशी का पठार

oplus 1048832
प्रतीकात्मक फोटो

– विवेक कुमार मिश्र

vivek mishra 162x300
डॉ. विवेक कुमार मिश्र

आदमी सोचता ही रहता है कि
सब कुछ यूं ही मिल जाएं
यूं ही मगन मन हो घूम लें दुनिया
पर कहां कुछ भी यूं ही मिलता
जो है और जो कुछ होता है
उस सबके लिए तो हिकमत बिठानी पड़ती है
न जाने कहां कहां जाकर
क्या कुछ नहीं करना होता है
और लोग बस प्रतीक्षा कर रहे हैं कि
वह आयेगा और सब कुछ यूं ही हों जायेगा
पर कुछ भी ऐसे ही नहीं होता
उस सबके पीछे एक आदमी पागल की तरह
दिन रात एक किए भागता रहता है
अपनी नींद अपना चैन सब छोड़
बस भाग रहा है कि दुनिया
अपनी जगह पर बनी रहे
जैसे तैसे सब ठीक-ठाक चलता रहे
और तुम हो कि सब ऐसे ही पा जाना चाहते
भला किसी को भी कुछ भी ऐसे ही कहां मिलता
इसीलिए आदमी आदमी की तरह रहता है
आदमी यूं ही कुछ नहीं पाना चाहता
कुछ करते हुए कुछ मिल जाएं तो
आदमी अपने आदमी भर खुश हो जाता ।
आदमी को खुश देखना
कभी भी आसान नहीं रहा
पर खुश आदमी भी इसी जगत में दिखते हैं
खुशी का पठार कहीं और नहीं
आदमी के मन में होता है
वहां होता है जहां से सारे विषाद झर जाते
और मगन मन आदमी नृत्य करते-करते
जगत में आ जाता है
आदमी को खुल कर आदमी की तरह आने दें
जब आदमी आदमी की तरह मिलता है तो
मगन रहता है और मन की करता है
सारा संकट ही इस बात में है कि
आदमी मन मारकर रोते-धोते कार्य करता है
फिर भला कहां से सुख होगा , कहां से प्रसन्नता होगी
यहां फिर आदमी कम
आदमी के पुतले ही ज्यादा दिखते हैं
अब यह आप पर है कि आप पुतलों के बीच रहते हैं
या आदमी बन आदमी के साथ रहते हैं।

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments