आप की हार में कांग्रेस की जीत

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-देशबन्धु में संपादकीय 

दिल्ली विधानसभा चुनाव के शनिवार को निकले नतीजों में सत्तारुढ़ आम आदमी पार्टी के हिस्से में जो हार आई है उसे कांग्रेस की जीत के रूप में देखा जा रहा है, बावजूद इसके कि उसे (कांग्रेस) पिछले दो चुनावों की तरह एक भी सीट नहीं मिल सकी। कांग्रेस द्वारा तालमेल कर चुनाव लड़ने की पेशकश में बढ़ाये हाथ को जिस प्रकार से आप ने झटक दिया था, उसका परिणाम तो यह पराजय मानी ही जा रही है, इसने आप का वैचारिक खोखलापन व मूल्यविहीन राजनीति को भी उजागर कर दिया है जिसके बरक्स कांग्रेस का कद और महत्व अपने आप बढ़ जाता है।

यह चर्चा आम है कि इंडिया गठबन्धन का सदस्य होने के बावजूद अकेले लड़कर सत्ता को फिर से और वह भी अकेले पाने का लालच आप को महंगा पड़ गया जिसका पिछले तीन बार जीतने का शानदार रिकॉर्ड रहा था। इस अदूरदर्शितापूर्ण और स्वार्थ भरे तरीके से चुनाव लड़कर आप ने न केवल सत्ता गंवाई वरन अपनी प्रतिष्ठा बचाने का अवसर भी खो दिया। साफ़ दिखता है कि अब भारतीय जनता पार्टी व उसकी नेशनल डेमोक्रेटिक एलांयस और कांग्रेस प्रणीत इंडिया गठबन्धन के बीच आप फंसकर रह जायेगी और उसके मुश्किल दिनों की शुरुआत जल्दी हो सकती है। इस बड़े सियासी घटनाक्रम को लेकर अलग-अलग कयास लगाये जा रहे हैं पर एक बात तो साफ़ है कि आप की हार से कांग्रेस का दबदबा तो बढ़ा ही है, इंडिया भी मजबूत हुआ है।

2011-12 के देशव्यापी इंडिया अंगेंस्ट करप्शन आंदोलन के सबसे बड़े हीरो बनकर उभरे अरविंद केजरीवाल ने अनेक आंतरिक विरोधों के बावजूद इस राजनीतिक दल का गठन किया था। यह पूरा आंदोलन कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ था। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कथित भ्रष्टाचारों को आधार बनाकर यह अभियान चला था जिसके मुख्य सूत्रधार प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे थे। हालांकि बाद में विभिन्न तरह की जांच से ये सारे मामले निराधार साबित हुए।

कांग्रेस के ख़िलाफ़ बने माहौल के बीच 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में पहली बार चुनाव में उतरी आप को 28 सीटें मिली थीं। जिस कांग्रेस का विरोध कर केजरीवाल को दिल्ली सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं पर बहुमत से वह दूर थी, कांग्रेस ने उसे समर्थन देकर सरकार बनाने में मदद की। 49 दिन सरकार चलाने के बाद केजरीवाल ने लोकपाल विधेयक को पास न करा पाने के कारण इस्तीफ़ा दे दिया था। 2015 में उसे 70 में 67 तथा 2020 में 62 सीटें मिली थीं। इन दो बम्पर जीतों से केजरीवाल स्वयं को अपराजित तो समझने ही लगे थे, उनकी विस्तार की महत्वाकांक्षाएं व्यापक होती गयीं। देश भर में यह समझ विकसित हो जाने के बाद भी, कि भाजपा की केन्द्र सरकार को हराने के लिये विपक्षी एकता ज़रूरी है ताकि भाजपा विरोधी वोट न बंटें, आप ने गठबन्धन से दूरी बनाये रखी।

इंडिया गठबन्धन में कई दल आये तो कुछ दलों ने आधा-अधूरा गठबन्धन किया। कई पार्टियों ने लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ने की हामी तो भरी लेकिन विधानसभा चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ते रहे। शराब घोटाला कांड में जब केजरीवाल जेल भेजे गये तब कांग्रेस ने आप का साथ देकर गठबन्धन धर्म निभाया। उनके तथा झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन (झारखंड मुक्ति मोर्चा) को जेल भेजे जाने के ख़िलाफ़ बड़ी सभा की। सोनिया गांधी ने कल्पना सोरेन व सुनीता केजरीवाल को साथ बिठाया। लोकसभा व विधानसभा चुनावों में सोरेन ने तो साथ निभाया लेकिन केजरीवाल ने पहले हरियाणा और फिर दिल्ली विधानसभा चुनावों में आंखें दिखाईं।

दिल्ली में पिछले दो चुनावों में मिली बड़ी जीतों को दोहराने के प्रति आप इतनी आश्वस्त थी कि वह भूल गयी कि इन पांच वर्षों में यमुना में बहुत सारा पानी बह चुका है। बेशक, लोकसभा के 2024 के चुनाव से भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गयी हैं पर वह इंडिया के कारण था। साथ ही उसने इस तथ्य को भी नज़रंदाज़ कर दिया कि उसी चुनाव में दिल्ली की सातों सीटें भाजपा ने जीती थीं। यानी उसका मजबूत आधार बचा है, तभी उसने कांग्रेस व आप दोनों को हराया था। कांग्रेस तो पंजाब में भी मिलकर चुनाव लड़ना चाहती थी पर आप को वह भी नामंजूर हुआ।

आप की पराजय से संदेश गया कि मिलकर लड़ने पर फ़ायदा है वरना हारने के लिये सभी को तैयार रहना होगा। यह अन्य घटकों के लिये संदेश है कि कांग्रेस का विरोध करने पर सीटें तो घटेंगी ही, जहां सरकार है वे जा भी सकती हैं। अपने-अपने दम पर चुनाव लड़ने वाली या आगामी चुनावों में ऐसी मंशा पालने वाली पार्टियों को सचेत होने का अवसर दिल्ली के चुनावी परिणामों ने दिया है। अनेक ऐसे नेता हैं जो बीच-बीच में इंडिया, विशेषकर कांग्रेस को आंखें दिखाते हैं। फिर वे चाहें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी हों या उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव।

इस जमात में केजरीवाल सर्वाधिक अविश्वसनीय रहे हैं; और सबसे मुखर भी। वे इंडिया में नेतृत्व परिवर्तन भी चाहते हैं। तृणमूल कांग्रेस ने प. बंगाल और केजरीवाल ने पंजाब में कांग्रेस को साथ लिये बिना जीत दर्ज़ कर मान लिया था कि सारे चुनाव ऐसे ही लड़े जा सकते है। बेशक दिल्ली में कांग्रेस को एक भी सीट न मिली हो लेकिन उसकी महत्ता तथा इंडिया में उसका स्थान कहां है, यह प्रतिपादित हो गया। माना जा रहा है कि मिलकर चुनाव लड़ा गया होता तो आप कम से कम 15 सीटें और पा सकती थी तथा सम्मिलित रूप से दोनों भाजपा से और 19-20 सीटें तक झटक सकते थे। लेकिन आप ने यह मौका गंवा दिया।

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