
-सुनील कुमार Sunil Kumar
तमिलनाडु की डीएमके सरकार की एक तिकड़म पर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाते हुए यह कहा है कि वहां के एक पूर्व मंत्री वी.सेंथिल बालाजी के खिलाफ घूस लेकर नौकरी देने के एक मामले में सरकार ने जिस तरह से कथित रिश्वत देने वाले दो हजार लोगों को आरोपी बना दिया है, और पांच सौ गवाह जोड़ दिए हैं, वह राज्य सरकार की बदनीयत बताता है। अदालत ने कहा कि ऐसे में तो इस मामले की सुनवाई के लिए एक स्टेडियम की जरूरत पड़ेगी। पिछले दो दिनों से सुप्रीम कोर्ट इस मामले में राज्य सरकार को फटकार लगा रहा है और कह रहा है कि वह एक ऐसी नौबत खड़ी कर रही है कि जिस पूर्व मंत्री के खिलाफ घूस लेने के आरोप हैं, उस मंत्री की पूरी जिंदगी तक यह मामला चलता ही रहे, कहीं किनारे न पहुंच जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह सिर्फ एक तकनीकी बात है कि रिश्वत देने वालों ने भी अपराध किया है, लेकिन उन पर मुकदमा चलाने से मुख्य अभियुक्त तो बच ही जाएगा, क्योंकि मामले का कभी फैसला ही नहीं हो सकेगा। अदालत ने कहा कि मुख्य अभियुक्त एक ताकतवर राजनेता है, और उनके भाई, निजी सहायक, और आसपास के कुछ लोग जिन्होंने नौकरी के लिए पैसे वसूले थे उतने लोगों को ही मुख्य अभियुक्त मानना चाहिए।
लोकतंत्र में पुलिस राज्य सरकारों के हाथ रहती है, और वही पहली जांच एजेंसी रहती है। देश की बाकी तमाम जांच एजेंसियों की बारी पुलिस के बाद ही आती है, सरकारें तय करती हैं कि किसी मामले को आर्थिक अपराध जांच ब्यूरो को देना है, या सीबीआई को देना है, या केन्द्र सरकार की जांच एजेंसी ईडी किसी दूसरी पुलिस या एजेंसी की एफआईआर पर काम शुरू करती है, एक पुरानी एफआईआर पर नया केस दर्ज कर लेती है। लेकिन भारत के संघीय ढांचे में पहला जुर्म दर्ज करना, पहली एफआईआर, पहली जांच, यह सब कुछ राज्य सरकार के तहत आता है। और देश में राजनीतिक कटुता धीरे-धीरे इतनी जहरीली हो गई है कि राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी के मातहत काम करने वाली, अक्सर भ्रष्ट, और बहुत से मामलों में सत्ता के रूझान से साम्प्रदायिक हो चुकी पुलिस पहला जुर्म दर्ज करती है, पहली कार्रवाई करती है, और उसके खिलाफ सुनवाई में, राहत पाने में, कई महीनों से लेकर कई बरस तक लग जाते हैं। कुछ मामलों में तो हमने देखा हुआ है कि बिना सुनवाई पांच-छह बरस तक लोग जेलों में बंद हैं, यानी ऐसे मामलों में प्रक्रिया ही पनिशमेंट हो गई है।
राज्य सरकारों की पुलिस और एफआईआर की असीमित ताकत का इस्तेमाल हम अलग-अलग कई पार्टियों की राज्य सरकारों के तहत देख चुके हैं। किस तरह एक कार्टून, या एक सोशल मीडिया पोस्ट पर महीनों तक जेल में ठूंस दिया जाता है, कार्टूनिस्ट पर राजद्रोह का मुकदमा चलने लगता है। एक तरफ साम्प्रदायिक नफरत का झंडा लहराते चारों तरफ नारे लगाते लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता, क्योंकि उनके राज्य की सत्ता और पुलिस उनकी हिमायती हैं, और दूसरी तरफ एक व्यंग्य लेख या कि एक कार्टून सुप्रीम कोर्ट तक जमानत नहीं पाने देता। अब तो देश की बड़ी अदालतों में भी कुछ ऐसी हो गई हैं कि वे लोगों को राजनीतिक पैमानों पर राष्ट्रवादी देशभक्ति सिखाने लगी हैं, यह भी सिखाने लगी हैं कि कौन से मुद्दे देशभक्ति के हैं, और कौन से नहीं। जब राज्य सरकारों का संवैधानिक शपथ से परे का रूख, असहमति के खिलाफ उनका हमलावर तेवर, और ठकुरसुहाती में लगी हुई भ्रष्ट पुलिस का मेल हो जाता है, अदालतें राष्ट्रवाद से अपनी प्रतिबद्धता दिखाने पर उतारू हो जाती हैं, तो फिर वैचारिक विविधता के सांस लेने लायक हवा ही नहीं बचती। यह नौबत खतरनाक इसलिए है कि कब किस राज्य में किसकी सरकार रहे, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है, और भारत जैसे अक्खड़ और अधकचरे हो चले लोकतंत्र में गौरवशाली परंपराओं को मानने का सिलसिला भी खत्म हो चला है, और ऐसे में सिर्फ बुरी मिसालें सत्ता के फैसलों की जमीन बन जाती हैं। यह नौबत लोकतंत्र में परस्पर सम्मान की एक बुनियादी जरूरत को खत्म कर रही है। यह सिलसिला खतरनाक है, और यह आगे कहां तक जाएगा इसका ठिकाना नहीं है। हम अलग-अलग कई प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियों की राजनीतिक पसंद और नापसंद के आधार पर कई हिंसक और साम्प्रदायिक संगठनों की परले दर्जे की सार्वजनिक हिंसा को देखकर हैरान हैं कि उनके वीडियो सुबूत रहने पर भी उनके खिलाफ कार्रवाई इसलिए नहीं होती है कि उनकी राजनीतिक, धार्मिक, या साम्प्रदायिक सोच सत्ता को माकूल बैठती है। यह सिर्फ गुंडों की किसी फौज को संरक्षण देने जितना मामला नहीं है, यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अंत का आरंभ भी है।
लोकतंत्र में सहनशक्ति का एक लचीलापन उसे महान बनाता है। असहमति के लिए बर्दाश्त उसकी ताकत रहती है। लेकिन भारत में वह खत्म होते दिख रही है, और जब राज्य की पुलिस को ऐसे राजनीतिक, धार्मिक या साम्प्रदायिक मकसद से बेजा इस्तेमाल करना एक आम बात हो जाती है, तो फिर नेताओं को अपने आपको, या अपने गुर्गों को बचाने के लिए पुलिस को एक औजार की तरह इस्तेमाल करने में कोई शर्म नहीं रह जाती। राज्यों की पुलिस कई जगह पर सत्तारूढ़ पार्टी की पोशाक में, उसके झंडे-डंडे लेकर चलने में गर्व महसूस करते दिखती है। अब ऐसा लगने लगा है कि देश का संघीय ढांचा तो ठीक है, लेकिन राज्यों के नियंत्रण की पुलिस, और केन्द्र सरकार के नियंत्रण की ईडी, और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों पर जो संपूर्ण नियंत्रण राजनीतिक ताकतों का हो गया है, उसके वजनतले संघीय ढांचा भी चरमरा रहा है, और लोकतंत्र भी चरमरा रहा है। देश के सोचने-विचारने वाले लोगों को, संविधान के शब्दों और उसकी भावना के जानकार लोगों को इस बारे में फिक्र करनी चाहिए कि हम किस तरफ ढुलक रहे हैं, और खाई में गिरने से कितने दूर बचे हैं।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)