मीता की कहानी ’ — सामाजिक विमर्श का सशक्त मंचन

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-संजय चावला-
sanjay chawala
संजय चावला
विजय तेंडुलकर द्वारा रचित चर्चित नाटक ‘मीता की कहानी ’ का मंचन रविवार को बेंगलुरु के जाग्रति थियेटर में अत्यंत प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया गया। यह नाटक उन सामाजिक मान्यताओं और परम्पराओं पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, जो व्यक्ति की स्वायत्तता और भावनात्मक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करती हैं।
नाटक की कथा एक वयस्क युवती मीता के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जो स्त्री-पुरुष संबंधों को अस्वीकार कर अपनी स्त्री मित्र के प्रति गहन भावनात्मक आकर्षण स्वीकार करती है। यह निर्णय उसे सामाजिक तिरस्कार और आत्मसंघर्ष की कठिन राह पर ले जाता है। तेंडुलकर ने इस संवेदनशील विषय को अत्यंत ममत्वपूर्ण और कोमलता के साथ प्रस्तुत किया है, जिससे पात्रों की मनोवैज्ञानिक गहराई उजागर होती है।
मीता की भूमिका में बिहार की कलाकार शुभ्रा ने एक अत्यंत संजीदा और प्रभावशाली अभिनय प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने चरित्र की आंतरिक पीड़ा, साहस और सामाजिक द्वंद्व को सजीव रूप में मंच पर उकेरा। वहीं, बापू की भूमिका में हसीब खान ने अपनी सशक्त अभिनय क्षमता द्वारा पात्र की मनोवृत्तियों – क्रोध, संशय और सहानुभूति – को अत्यंत संतुलित और प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया।
निर्देशक कमल सिंह की निर्देशकीय दृष्टि उल्लेखनीय रही। उन्होंने बापू के विभिन्न मानसिक भावों को व्यक्त करने हेतु तीन भिन्न पात्रों का प्रयोग किया, जो एक अभिनव और सराहनीय प्रयास रहा। इस प्रयोग से दर्शकों को पात्र की मनोस्थितियों को विविध दृष्टिकोणों से समझने का अवसर प्राप्त हुआ, जिससे मंचन की प्रभावशीलता और भी बढ़ गई।
संक्षेप में, ‘मीता’ का यह मंचन न केवल समाज में व्याप्त रूढ़ियों पर प्रहार करता है, बल्कि व्यक्ति की पहचान, भावनात्मक स्वतंत्रता और संबंधों की जटिलता पर भी गहन विमर्श प्रस्तुत करता है। अभिनय, निर्देशन और प्रस्तुति – सभी स्तरों पर यह नाटक अत्यंत सफल एवं विचारोत्तेजक सिद्ध हुआ।
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