
-कृष्ण बलदेव हाडा-

-आज से नव वर्ष शुरू हो चुका है। यह कोई नई बात नहीं है, ऐसा दशकों-सदियों से होता रहा है लेकिन बीते कुछ सालों-दशकों में यह एक खास उत्सव का अवसर बन गया है और अब अगर बन गया है तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हमेशा एक नई पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और हर साल नया साल भी एक नई पहल बनकर ही तो आता है तो उसके स्वागत में गुरेज-परहेज क्यों? हमारी पुरानी मान्यताओं के अनुसार बसंत पंचमी का वासंती रंगो के साथ स्वागत जैसे अवसर रहे हैं तो नव मान्यताओं के अनुसार नवागंतुक साल के स्वागत का यह सुअवसर हो सकता है क्योंकि कम से कम इस बहाने ही सही, इस दिन के अवसर को सुअवसर में बदलने की कोशिश में ज्यादातर लोग अपने भावी जीवन को नए सिरे से संवारने का कुछ ना कुछ नया संकल्प लेते जरूर नजर आते हैं जो एक अच्छी पहल हो सकती है। यह दीगर बात है कि कई बार झौंक में लिए गए यह संकल्प हवा के झोंके जैसे साबित होते हैं जो टिकाऊ नहीं हो पाते। चाहे वे चाय-शराब के सेवन को विदा-अलविदा करने वाले संकल्प हो या जा गैर तामसिक प्रवृत्ति के साथ प्रेम-भाईचारे से रहने की स्वाभाविक मानवीय संकल्क। यह सब कब का काफूर हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता है ! इन सब वृति-मनोवृति के बावजूद आज के देश के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे में नव वर्ष के कई नए सकारात्मक संकल्प किये जाने की महती आवश्यकता है जो पूर्व में भी सुझाए गए हो सकते हैं, लेकिन आज की परिस्थितियों में यह बहुत प्रासंगिक नजर आते हैं। हालांकि यह सही है कि यह संकल्प शराब-सिगरेट छोड़ने जैसे वैयक्तिक संकल्पों की जगह राष्ट्रीय हो सकते है, उसने राजनीतिक भी लग सकते हैं, लेकिन आज की व्यवस्था की दृष्टि से अव्यावहारिक नहीं होंगे, ऐसा मानना है। जैसा यह कि- यह संकल्प करें कि पर-स्वतंत्रता के सिद्धांत की पालना करते हुए एक नागरिक के रूप में लिंग, जाति, धर्म के भेद सहित आय की सीमाओं का आकलन करते हुये भेदभाव किये बिना समभाव से सभी के साथ सहचर का
संकल्प करें। जैसे कि- गली-नुक्कड़ के किसी छोटे दुकानदार-कारोबारी से खरीदारी में भी ऐसी ही आकांक्षा रखें जो फ्लिपकार्ट में बदल चुके बेस्ट प्राइस में खरीदारी करते समय रखते हैं जिसका बीते सालों में विदेशी व्यवसायिक घुसपैठिया कहकर विरोध करते-करते कब दबे कदमों से उसमें समाहित हो चुके हैं। जैसे कि- देश के 1947 में आजाद होकर 1950 में संवैधानिक व्यवस्था को अंगीकार करने के बाद भी अब तक बीती करीब तीन-चौथाई सदी के बावजूद आरक्षण के नाम पर वाजिब हकदारों का हक ना माने जिन्हें राजनीतिक स्वार्थों की खातिर तब सामाजिक दृष्टि से ऊंचे दर्जे का होने का तमगा थमा कर आज आर्थिक दृष्टि से निचले पायदान तक न केवल पहुंचाया है बल्कि हर दशक बाद इस क्षुद्र राजनीतिक व्यवस्था को आगे बढ़ा कर समाज एक बड़े वर्ग को प्रताड़ित किया जा रहा है। कुछ वर्ग संख्या बल के चलते राजनीतिक दबाव से अपने आरक्षित कोटे का सफलतापूर्वक हासिल कर रहे हैं तो आजादी के बाद लगातार उच्च वर्ग का होने की प्रताड़ना का दंश भोग रहा यह दूसरा वर्ग खुद के लिए अब अलग कोटा मांगने को मजबूर है। अब आईएएस के बेटे को भी आरक्षण का नैसर्गिक हकदार मानने की की व्यवस्था को खत्म करने का संकल्प जरूरी है। यह संकल्प भी जरूरी है कि बुनियादी मुद्दों से भटकाने के लिए “पानीपत से लेकर पठान ” जैसे अतार्किक मसलों मे लोगों को उलझाये रखने वाली पूर्वाग्रह ग्रसित राजनीति से बाज आए। संकल्प करें कि कोरोना के नाम पर हर महीने 5 किलो मुफ्त अनाज देने की व्यवस्था करने वाली केन्द्रीय राजनीतिक व्यवस्था राजस्थान में हर आदमी को निशुल्क इलाज की सुविधा देने पर ‘मुफ़्त की रेवड़ी’ कहकर सवाल उठाए। कुछ राज्यों के चुनावी साल में 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने का वायदा करने वाले शासक राजस्थान में महज 50 यूनिट मुफ्त बिजली देने पर सवालिया निशान खड़े करें। अपना कारोबार खड़ा करने के लिए गली-नुक्कड़ के किसी व्यापारी से उसकी लौटाने कीक्षमताओं पर तरह-तरह के सवाल खड़े किये बिना कम ब्याज दर पर बैंकिंग संस्थाओं से ऋण हासिल करने की वही सुविधा मिले जो किसी अम्बानी-अड़ानी या विदेश भाग जा सकने वाले मोदी को मिलती है, यह व्यवस्था करने का संकल्प होना चाहिए क्योंकि यह तो तय है कि किसी बड़े दिग्गज कारोबारी की तरह यह गली-मोहल्ले का ‘फुटकर’ कम से कम विदेश तो नहीं भागेगा। यह भी संकल्प करें कि- न्यायपालिका-कार्यपालिका के अधिकारों में भेद न हो, स्वतंत्रता के अधिकार को अभिव्यक्त करने वाले अखबारों और अब बड़ी ताकत बन गए या बनते जा रहे न्यूज़ चैनल जैसे प्रचार तंत्र को शक्ति-सामर्थ्य के दम पर खरीद कर पंगु न बनाया जाये।
ऐसे ही ओर भी बहुत से संकल्प हो सकते हैं। विचार करें…. सुविचार जरूर आएगा।