छह बरस से ही बच्चों को झूठ पकडऩा सिखाने वाला देश!

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-सुनील कुमार Sunil Kumar

भारत के सोशल मीडिया पर बदनीयत झूठ का सैलाब हर कुछ मिनटों में भिगाता रहता है। फेसबुक और एक्स पर, या वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों पर हजार किस्म के झूठ गढक़र लोग इतने समर्पित भाव से उसे फैलाते हैं कि यह समर्पण अगर समाज के भले के किसी काम में दिखाया गया होता, तो समाज सचमुच ही बहुत भला हो गया रहता। एक दिक्कत यह भी देखने में आती है कि जिन लोगों को आमतौर पर पढ़ा-लिखा, और समझदार भी माना जाता है, वे भी बिना बदनीयत के भी गढ़े हुए झूठ को आगे बढ़ाने के काम को बहुत समर्पित भाव से करते हैं। इसके पीछे उनका तर्क रहता है कि यह तो कई लोग सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं, इसलिए उन्होंने भी कर दिया, या उन्होंने भी इसे किसी ग्रुप में डाल दिया, या दोस्तों को अलग-अलग भेज दिया। चूंकि कई लोग कर रहे हैं इसलिए वैसा करने में बाकी लोगों को भी कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, यह समझ का सुबूत कम रहता है, गैरजिम्मेदारी का अधिक रहता है। आज जब इंटरनेट पर झूठ को पकडऩे के हजार किस्म के मुफ्त तरीके मौजूद हैं, तब बदनीयत झूठ को कथित मासूमियत के साथ आगे बढ़ाते चलना अगर बदनीयत होने का सुबूत नहीं है, तो उसे मासूमियत का संदेह का लाभ भी नहीं दिया जा सकता।

भारत के सोशल मीडिया का यही हाल देखकर अभी कुछ हफ्ते पहले की फिनलैंड की एक खबर याद पड़ती है जिसमें वहां की स्कूलों में छह बरस के बच्चों को स्कूली शिक्षा के तहत ही यह पढ़ाया और सिखाया जा रहा है कि ऑनलाईन झूठी खबरों को कैसे पहचानें और पकड़ें। फिनलैंड को योरप का सबसे अधिक मीडिया-जागरूकता वाला देश माना जाता है। 2013 से इस देश में मीडिया की शिक्षा को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, जिससे कि बच्चे कमउम्र से ही झूठी खबरों को पहचानना सीख जाएं, किसी जानकारी या सामग्री के स्रोत का विश्लेषण करना सीख जाएं, और ऑनलाईन सामग्री को आलोचक की नजर से परख सकें। वहां की खबरें बताती हैं कि स्कूली बच्चे यह परख लेते हैं कि सोशल मीडिया पर कौन लोग झूठ फैलाते हैं। वहां के शिक्षामंत्री का कहना है कि चूंकि अब परंपरागत मीडिया पर लोग कम निर्भर करते हैं, इसलिए बाकी मीडिया में सच्चाई को परखने के लिए नई पीढ़ी को ही काबिल बनाना जरूरी है। यही खबर बताती है कि किस तरह फिनलैंड में सच की जांच करने वाली एजेंसियां लोगों की मदद के लिए मौजूद रहती हैं। अब वहां छोटे-छोटे स्कूली बच्चे भी सोशल मीडिया की सामग्री को देखकर सवाल करते हैं कि यह कहां से आई है, इसमें कितनी सच्चाई है?

सच तो यह है कि अंधभक्ति दर्जे का अंधविश्वास अगर लोगों में न रहे, तो उनके मन में यह स्वाभाविक जिज्ञासा रह सकती है कि कोई जानकारी कहां से आई, क्यों आई, किस मौके पर आई, और उसके पीछे कौन सी बदनीयत हो सकती है। लेकिन जब किसी धर्म, जाति, विचारधारा, व्यक्ति, या संगठन के प्रति अंधविश्वास हो, तो फिर उन्हें सुहाने वाली बातों को भला कौन परखे? मैं सुबह से यह देखकर थक जाता हूं कि कुछ लोग शायद अलार्म लगाकर उठते हैं, और नफरत को इस समर्पण से आगे बढ़ाने लगते हैं कि मानो उन्हें परिवार से इसी सूर्यनमस्कार की सीख मिली है। सूरज उगा नहीं रहता कि वे सोते हुए लोगों तक नफरत को फैलाने लगते हैं, जो कि तीन चौथाई से अधिक बार झूठी होती है, और बाकी एक चौथाई भी रंग-बिरंगे झूठ की आइसिंग से सजाए गए केक सरीखी होती है। इनमें अपने आपको खासा पढ़ा-लिखा मानने और कहने वाले लोग भी रहते है, और बहुत से लोग यह जहर फैलाते हुए भी अपने किसी प्रतिष्ठित पेशे का जिक्र भी अपने नाम के साथ करते हैं। शायद प्रतिष्ठित पेशे का जिक्र नफरत के जहर को एक अलग प्रतिष्ठा दिला देता है।

हिन्दुस्तान को फिनलैंड बनाना मुमकिन नहीं है क्योंकि बहुत से दशकों में धीरे-धीरे मिली सभ्यता हाल के बरसों में एकाएक साथ छोड़ गई है, और लोग अब फैक्ट-चेक जैसी बातों को अर्बन-बागी हरकत मानने लगे हैं। ऐसी जरा सी भी कोशिश दिखने पर लोग जागरूक लोगों को हमेशा के लिए सुला देने को भी तैयार रहते हैं, और पुणे से लेकर बेंगलुरू तक सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस तरह सुलाया भी गया है।

आज हिन्दुस्तान में आम लोगों की सोच पर जिस किस्म के मुद्दे हावी हो गए हैं, उनके बीच से कोई छेद तलाशकर तथ्य और तर्क को भीतर घुसने का कोई रास्ता नहीं मिल सकता। इतिहास, विज्ञान, और जिंदगी के बाकी बहुत से दायरों की जानकारी को तोड़-मरोडक़र एक अलग शक्ल दे दी गई है, और हिन्दुस्तान कोई फिनलैंड तो है नहीं कि जहां बच्चे छह बरस की उम्र से ही स्कूल से फैक्ट-चेक सीखना शुरू कर चुके हैं। इसलिए यहां पर लोग दिमाग की चर्बी पर जोर डाले बिना पूरी बदनीयत से गढ़े हुए झूठ को खालिस सच की तरह आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं, फिर चाहे उनके बीच आखिर में बची हुई थोड़ी-बहुत सहज बुद्धि खुद के लिए उसे मानने से इंकार भी करती हो।

लेकिन हिन्दुस्तान में भी जो मां-बाप अपने बच्चों का एक बेहतर भविष्य चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे बच्चों को सच और झूठ में फर्क करना सिखाएं, किसी मुहिम के पीछे की बदनीयत की शिनाख्त करना सिखाएं। इसके बिना उनके बच्चे वैश्विक मुकाबलों में पीछे रह जाएंगे, क्योंकि झूठ गढऩे और फैलाने के पेशे तो कम रहेंगे, और जितने किस्म के बेहतर काम एआई के हमले के बाद भी बचे रहेंगे, उनमें झूठ की बुनियाद पर खड़ी हुई नौजवान पीढ़ी की गुंजाइश कम रहेगी। आने वाला वक्त ऐसे जिम्मेदार लोगों का हो सकता है जो सुबह से अपने मोबाइल फोन पर आए हुए जहरीले नफरती सामान को दूसरों को सुबह-सुबह के प्रसाद की तरह बांटने वाले न हों। अब एआई की मेहरबानी से नफरतजीवी लोगों की शिनाख्त भी आसान हो चली है, और आज किसी प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दाखिले, या किसी अच्छी अंतरराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी के पहले अर्जी देने वालों की इंटरनेट-प्रोफाइल परख ली जाती है कि वे किस किस्म के हैं। नफरत और झूठ आपको किसी किनारे नहीं पहुंचा सकेंगे।

यह भी समझने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान की आज की नई पीढ़ी की जिंदगी में धर्म के ओवरडोज के नुकसान हो रहे हैं। बच्चों को लग रहा है कि जिंदगी में यही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। और देश में जो राजनीतिक-सामाजिक माहौल बना हुआ है, वह कब धर्म को धर्मान्धता की सीमा के भीतर ले जाता है, और कब वहां से आगे बढ़ाकर साम्प्रदायिकता के इलाके में, यह अहसास नहीं हो पाता, क्योंकि इनके बीच कोई नक्शे सरीखी सीमा रेखा नहीं है। दुनिया के जो देश धर्मान्धता और उस पर आधारित नफरत के साथ जी रहे हैं, उनका हाल कैसा बर्बाद है यह भी दिखाई दे रहा है।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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