
– विवेक कुमार मिश्र-

शिक्षक का पद एक मूल्यपरक सत्ता के रूप में सामाजिक संदर्भ ग्रहण करता है । शिक्षक निडर , निर्भय और उच्च नैतिक वोध से अपने शिष्यों का इस तरह निर्माण करता है कि आने वाले समय में समाज को एक और शिक्षक मिलें । शिक्षा का सारा जोर चरित्र और नीतिशास्त्र के पाठ पर होते हुए जीवन की विविधता को सीखने का अवसर देने वाला होना चाहिए । शिक्षा जगत की पूरी संरचना में सामाजिकता का पाठ होता है । शिक्षक की दुनिया निजी या एकाकी नहीं होती वह समाज से जो कुछ ग्रहण करता है उसमें अपना अनुभव और ज्ञान जोड़कर समाज को लौटा देता है । उसकी वृत्ति में यह होता है कि अधिक से अधिक लोगों को अपना ज्ञान बांट सकें । अपने संदर्भ को सामाजिक बनाते चलें । यह प्रकृति प्रदत्त गुण है और गुण के रूप में जिसके भीतर शिक्षक वृत्ति होती है वह सतत रूप से अपने आसपास की दुनिया को सीखाता समझाता रहता है । समाज में जिस तरह का भी अधूरापन है उसे वह दूर करने की कोशिश करता है । आज जरूर शिक्षक का वर्ग एक नौकरीपेशा वर्ग के रूप में समाज के सामने है पर शिक्षक के पद और प्रतिष्ठा का जहां तक सवाल है वह एक आदर्श समाज की संरचना को सामने रखकर होता है । यह आदर्श न तो सामाज शिक्षक को दे पाता है और न ही शिक्षक समाज की अपेक्षा और आदर्श को पूरा कर पाने की स्थिति में होता है फिर भी समाज के लिए सामाजिक संरचना के लिए शिक्षक समाज से अतिरिक्त जिम्मेदारी और आदर्श व उच्च नैतिक वोध की अपेक्षा की जाती है । एक शिक्षक के रूप में हमारे आदर्श ही समाज को पथ दिखाने के लिए होते हैं । शिक्षक का यह दायित्व होता है कि वह अपने शिष्य का चरित्र निर्माण करें उसके व्यक्तित्व को विकसित करें और इस तरह की शिक्षा उसे दे कि समाज को श्रेष्ठ नागरिक सेवाएं मिल सकें । गुरु या शिक्षक के दायित्व को शिक्षक के मार्ग को सभी ने प्रकाश पथ के रूप में देखा है । कबीर सूर जायसी तुलसी के यहां गुरु की महिमा का बखान यों हुआ है कि गुरु की कृपा हो गई फिर और कुछ नहीं चाहिए … यह कृपा भव सागर से पार जाने का रास्ता आप से आप निर्मित कर जाती है –
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए।।
– कबीर
सतगुरु की महिमा अनंत , अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया , अनंत दिखावणहार ।।
– कबीर
गुरु सुवा जेहिं पंथ दिखावा ।
बिनु सद्गुरु को निरगुन पावा ।।
– जायसी
भवसागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै ।
सूर श्याम गुरु ऐसी समरथ छिन मैं ले उधरै ।।
– सूरदास
गुरु बिन भवनिधि तरई न कोई
जो सहाय शंकर समय होई ।।
– तुलसी
ये पंक्तियां साक्ष्य हैं गुरु की महिमा का , इसे कथन भर नहीं समझा जाना चाहिए । इसके मर्म में इसके अनुभव में उतरने की जरूरत है । मनुष्य मात्र के व्यक्तित्व निर्माण में गुरु की महिमा का यह बखान देखा सुना जाता रहा है ।
शिक्षक की महिमा का बखान हर काल खंड में होता रहा है । स्वयं को जानने के लिए , संसार को जानने के लिए शब्द प्रकाशक अर्थ प्रकाशक , उद्घाटक शिक्षक/ गुरु की जरूरत कदम कदम पर पड़ती है । शिक्षक का पद एक दायित्व का पद है इसे केवल नौकरी पेशा के रूप में देखना शिक्षा तंत्र की अधूरी समझ और शिक्षा के व्यावसायिक रूप को देखें जाने का परिणाम है । ज्ञान की खोज में भटकते साधक से लेकर जीवन को व्यवस्थित रूप देने की कोशिश में लगे हुए लोग शिक्षक से सीधा सरोकार रखने वाले होते हैं । कोई भी क्यों न हो उसे ज्ञान की खोज में शिक्षक की जरूरत महसूस होती है । शिक्षक का पहला कार्य है रास्ता दिखलाना , पथ की ओर संकेत करना और उस पर चलने का निर्देश देना । शिक्षक का कार्य कभी खत्म नहीं होता। शिक्षक पथ का निर्माण करता है । पथ पर चलने का निर्देश देता है और जब साधक भटकता है इधर उधर जाता है तो उसे सही मार्ग पर लाने का काम शिक्षक ही करता है । संसार के उन तमाम रहस्यों को , उस सत्य को जिस तक अकेले नहीं जाया जा सकता उस तक शिष्य को पहुंचाने का काम शिक्षक करता है । शिक्षा स्वयं को समझने का साधन बनती है तो समाज को समझने का भी साधन बनती है । इसी क्रम में पूरे ज्ञानात्मक तंत्र को जोड़ने का माध्यम भी बनती है ।
कोई भी समय क्यों न हो समाज को गढ़ने की नैतिक जिम्मेदारी शिक्षक पर होती रही है । एक शिक्षक के लिए यह जरूरी होता है कि वह अपने समय की सामाजिक स्वीकृति और संसार की आवश्यकता को न केवल समझे वल्कि उन आवश्यकता की पूर्ति हेतु काम करें । समाज की गहरी समझ के साथ साथ मनुष्य के मन को समझते हुए एक सामाजिक सचेतनता के साथ काम करना शिक्षक की पहली पहचान होती है । शिक्षक का संदर्भ शिक्षा से ज्ञान से और मूल्य से एक साथ होता है । शिक्षक सूचना नहीं देता वह ज्ञान देने का काम करता है और ऐसा ज्ञान जो सामाजिक जिम्मेदारी के साथ समय समाज के लिए निर्मित होता है ।
सबसे पहली शिक्षा प्राइमरी स्कूल से शुरू होती है जहां सब कुछ नये सिरे से सीखने के लिए हमारे सामने बालक होता है । इस बाल मन पर जो बात , जो संदर्भ और जो मूल्य रख दिए जाते हैं वे हमेशा के लिए अमिट छाप के रूप में मन मस्तिष्क पर खुद जाते हैं । यहां से जीवन की न केवल शुरुआत होती है वल्कि ज्ञानात्मक संसार की और चेतना के निर्माण के साथ साथ मानवीय पथ पर चलने की दिशा भी यहीं से तैयार होती है । जब बालक स्कूल में जाता है तो शुरू शुरू में उसे यहां का वातावरण अलग लगता है , यहां वह नई – नई बातों को नये नये संदर्भ को देखता है । शुरू में विद्यालय के वातावरण में उसे सामंजस्य स्थापित करना होता है वह विद्यालय के वातावरण में रहना सीखता है । यहां जिज्ञासा , प्रश्न सब सामने आते रहते हैं , इस विंदू पर ही बालक सीखना शुरू करता है । इस क्रम में शिक्षक का दायित्व सबसे ज्यादा होता है कि वह विद्यार्थियों की जिज्ञासा को समझने के साथ साथ उनके प्रश्नों का जवाब दें । यहां ज्ञान के साथ सामाजिकता और मूल्य की जरूरत होती है यहां जो शिक्षक है वह अपने जीवन संदर्भ से अपने आचरण से उच्च नैतिक वोध को सामने रखता चलें इसका विद्यार्थियों पर बहुत व्यापक असर पड़ता है । जीवन की सफलता और सार्थकता में स्कूली शिक्षा के आदर्श और शिक्षक जीवन भर हमारे साथ चलते हैं । ये शिक्षक सूचना संदेश देने वाले नहीं होते यहां जो सूचना भी होती है वह आचरण के रंग में रंगी जाती है । आचरण , मूल्य प्रतिष्ठा और ज्ञानात्मक चेतना एक साथ इस संसार की आवाज बन शिक्षा के मंदिर में गूंजते हैं । इस गूंज से ही भविष्य का निर्माण होता है ।
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