
-शैलेश पाण्डेय-

नेशनल एनवायरमेंट सिंपोजियम में भागीदारी मेरे लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण साबित हुई। जहां विषय विशेषज्ञों के साथ मेलजोल के साथ ज्ञानवर्धन हुआ वहीं नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर बारां जिले के कुछ स्थलों को देखने और समझने का मौका मिला। हालांकि बारिश के मौसम में कीचड़ और गड्ढों से बदहाल सड़कों और बारां शहर में आधे-अधूरे ओवरब्रिज के साथ जगह जगह रास्ता रोके बैठे मवेशियों की वजह से जान सांसत में बनी रही लेकिन कुछ पाने के लिए इतना कष्ट उठाना ही पड़ता है। दो दिवसीय आयोजन के अंतिम दिन विरासत यात्रा थी जिसमें रामगढ़ क्रेटर और शाहबाद फोरेस्ट के दौरे शामिल थे। कुछ समय पहले वरिष्ठ पत्रकार धीरेन्द्र राहुल ने सपत्नीक रामगढ़ क्रेटर घूमने का प्रस्ताव रखा था। अटरू और बारां के पुरातत्व महत्व के स्थलों के बारे में निरंतर कार्यरत राकेश शर्मा जी ने उन्हें इसके लिए आमंत्रित किया था। इस बीच सिंपोजियम ने हमें यह मौका दे दिया।

सिंपोजियम के पहले दिन की थकान और देर रात तक वेबसाइट को अपडेट करने के कारण नींद तो कम हुई लेकिन मैं सुबह साढे छह बजे उठ गया। शायर शकूर अनवर, साहित्यकार प्रो विवेक मिश्र, राजनीतिक कॉलम लिखने वाले देवेन्द्र यादव के नियमित पोस्ट वेबसाइट पर अपलोड करने तक आठ बज गए थे। तब राहुल जी को उठाया और हम तैयार होकर होटल से आयोजन स्थल के लिए रवाना हुए। जिस रास्ते पर हम रात के अंधेरे और बारिश की वजह से एक घंटे भटकते रहे वही दिन के उजाले में 15 मिनट में ही पार कर आयोजन स्थल पहुंच गए। हमें बस से जाना था इसलिए आयोजन स्थल के पास स्थित वर्कशॉप में कीचड़ से लथपथ कार को वाशिंग के लिए दिया ही था कि राहुल जी ने आकर बताया कि सिंपोजियम के अन्य प्रतिभागी आज तय समय पर विरासत यात्रा पर रवाना हो गए। यह गनीमत थी कि कार की वाशिंग शुरू नहीं की थी इसलिए हम तुरंत रवाना हुए। मेरे साथ हमेशा ऐसा होता है कि यदि किसी कार्यक्रम में समय पर पहुंच जाओ तो कई बार आयोजक तक वहां नहीं मिलते और दस मिनट भी लेट हो जाओ तो कार्यक्रम शुरू हो जाता है। हालांकि हमारा पिछड़ जाना अच्छा ही रहा क्योंकि हम अपने वाहन के कारण मनमर्जी के मालिक रहे और जहां और जब जाना हुआ जा सके। इससे एक दिन पहले हमें कुंजेड़ से बस की वजह से जल्दी आना पड़ा था और स्थानीय कलाकारों के सांस्कृतिक कार्यक्रम का लुत्फ उठाने से वंचित हो गए। मेजबान प्रशांत पाटनी जी ने बाद में कहा भी कि आप बगैर बताए रवाना हो गए। आपको रूकना चाहिए था। आपके बारां के होटल भेजने की मैं व्यवस्था कर देता।

हमारे लिए बारां से किशनगंज तक का हाइवे का सफर तो शानदार रहा लेकिन इसके बाद रामगढ़ क्रेटर का रास्ता मुसीबत भरा था। जब भी कोई गांव आता टूटी सड़कें और उन पर बैठे मवेशी रास्ता रोके मिलते। यह सभी मवेशी पालतू थे क्योंकि ज्यादातर के कान पर टेग भी लगा था। लेकिन गांव वालों ने ही सड़क पर छोड़ रखा था। गड्ढों में हिचकोले खाते हुए जब रामगढ़ क्रेटर क्षेत्र में पहुंचे तो नजारा देखने लायक था। ऊँची पहाड़ियों और सघन हरियाली के बीच यह प्राकृतिक स्थल है। यहां सब कुछ है तालाब, करोड़ों साल पहले गिरा उल्का पिंड का स्थान, करीब एक हजार साल पुराना भण्डदेवरा मंदिर और पास ही पहाड़ी पर स्थित माता जी का मंदिर। उस पर हल्की रिमझिम ने प्राकृतिक सौंदर्य को ओर बढ़ा दिया था। बादल पहाड़ को आगोश में लेते दिख रहे थे। इस तरह के दृश्य आप शहर में कांक्रीट के जंगल में नहीं देख सकते। इसलिए शरीर को कष्ट देने के साथ जोखिम भी उठाना ही होगा।
हमारा बारां से रामगढ़ क्रेटर के सफर तक राहुल जी अपने बारां जिले में ‘आओ गांव चलो’ के दौरान मिले लोगों और उनके साथ हुई घटनाओं के किस्से रोचक अंदाज में सुनाते रहे। यह राहुल जी के किस्से सुनाने का कमाल था कि लगभग तीस किलोमीटर का दुरूह रास्ता ज्यादा नहीं खला। जबकि कई जगह तो ऐसी मिलीं जहां समझ नहीं आ रहा था कि कार को आगे कैसे निकाला जाए। कई बार तो लगा कि वापस लौट जाएं लेकिन धुन के पक्के राहुल जी के साथ रहते यह संभव नहीं था। उनका मूल मंत्र ही है कि जब तक पत्रकार जोखिम नहीं उठाएगा तब तक आम जन की परेशानियों को भी उजागर नहीं कर सकेगा। जब हम रास्ते में भंडदेवरा का रास्ता पूछ रहे थे तब मोटर साइकिल सवार एक सज्जन करीब एक किलोमीटर तक रास्ता बताते हुए हमारे साथ आए और फिर उन्होंने माताजी के मंदिर आने और वहां चाय पिलाने का निमंत्रण भी दिया।
खैर जब हम भंडदेवरा मंदिर पहंचे तो भग्नावशेष और आसपास बेतरतीब झाड़ झंखाड़ देख निराशा हुई लेकिन जैसे ही शिव मंदिर के पास पहुंचे तो उसकी महत्ता समझ आई। मंदिर क्या है पुरातत्व और वास्तुशिल्प का खजाना है। उसके मूर्ति शिल्प का गुण गान करने के लिए इस विधा का जानकार होना जरूरी है। अपने छह दशक के अधिक के जीवन में उत्तर से लेकर दक्षिण और पश्चिम भारत और यूरोप तक का शिल्प कौशल और आर्किटेक्चर देखा है। माइकल एंजेलो का शिल्प कौशल और पेंटिंग वर्क भी देखा। लेकिन यहां के शिल्प की बात ही अलग थी। चार इंच तक की पत्थर की प्रतिमाओं में जिस तरह आंख, नाक, कान, होंठ तराशे गए उससे शिल्पकारों के सौंदर्यबोध ने कायल कर दिया। जबकि यहां कठोर लाल पत्थर का उपयोग किया गया है जिस पर बारीक कारीगरी बहुत मुश्किल काम है। उस समय छैनी हथौड़ी से इन पत्थरों को तराशा गया होगा। एक पूरी पट्टी में हाथी उकेरे हुए हैं। उनमें बैठे हाथी की सूंड अगले पैर को लपेटे है। आपको यह अहसास होता है कि यह सूंड पैर के पीछे से आ रही है जबकि पिछला हिस्सा दिखता नहीं है लेकिन आप स्वत: समझ जाएंगे। यहां तक कि हाथी की सूंड के अग्र भाग में स्वास के लिए नथुने तक बखूबी तराशे हैं।

लगभग एक हजार साल पूर्व इतना अद्भुत निर्माण बाद में शायद भूकंप की चपेट में भी आया और काफी हिस्सा ढह चुका है। यह भी कहा जाता है कि मुगलों ने इस मंदिर में तोड़फोड़ की लेकिन जानकारों का कहना है कि यदि ऐसा होता तो और भी आसपास के मंदिरों को नुकसान पहुंचाया गया होता। जबकि मुगलकाल का ऐसा कोई वाकया यहां आसपास नहीं है इसलिए यह नुकसान शक्तिशाली भूकंप और समय के थपेड़ों की वजह से है।
हालांकि मंदिर में प्रस्तर को इस तरह एक दूजे में लगाया गया है जैसे पुराने समय में खाट के चारों पायों को छेद कर बांस की लकड़ियों से जोड़ा जाता था। इसमें जोड़ने में लोहे की पत्तियों का इस्तेमाल भी किया गया है। यहां मंदिर की सुरक्षा के लिए एक कर्मी तैनात है जो पूर्व नौसैनिक हैं। एक पुजारी प्रतिदिन आकर शिवलिंग की पूजा अर्चना भी करते हैं। हालांकि मंदिर के अंदर सुरक्षा की दृष्टि से लोगों को ज्यादा ठहरने नहीं देते लेकिन लोग फिर भी अच्छे से देख सकते हैं। वैसे कभी कोई प्रस्तर गिरने जैसा हादसा फिलहाल सुनाई नहीं दिया।

हम भारतीयों का हाल यह है कि जो विरासत है उसे बदसूरत बनाने में अपना योगदान देने से नहीं चूकते। कई जगह लोगों ने अपने इश्क को चूने या खड़िया से उकेरा हुआ था। जबकि श्रमदान कर मंदिर परिसर को साफ सुथरा करने को कहा जाए तो शायद ही कोई तैयार हो। प्रतिदिन डेढ़ हजार तक लोग यहां आते हैं। लेकिन इनमें ज्यादातर निकट ही स्थित माताजी के मंदिर के दशर्नाथी होते हैं। पुरातत्व या विरासत प्रेमी कुछेक ही होते हैं। हम भी जब वहां करीब एक घंटे रहे तब तक दो दर्जन लोग वहां आए और केवल शिवजी के दर्शन और आसपास चक्कर लगा कर चले गए। किसी को भी शिल्प सौंदर्य में रुचि नहीं थी। मंदिर के अंदर प्रस्तर खम्भों में खजुराहो की तरह मैथुनरत मूर्तियां उकेरी हुई हैं। इसीलिए इसे मिनी खजुराहो भी कहते हैं। माना जाता है कि यह क्षेत्र जंगल में सुनसान स्थल पर होने से बड़ी तादाद में सन्यांसी तपस्या करते थे। जब युद्ध और अन्य आपदाओं के कारण आबादी घटने लगी तो उन्हें गृहस्थ जीवन की ओर अग्रसर करने के लिए यह मूर्तियां उकेरी गईं। यह केवल कही सुनी बातें हैं और इनका तथ्यों से कोई लेना देना नहीं है। लोग अपना अपना आकलन प्रस्तुत करते हैं। वैसे भी मैं इतिहास या पुरातत्व का विद्यार्थी नहीं हूं इसलिए इन बातों का ज्ञान भी शून्य है। केवल सौंदर्य को अपने नजरिए से देख सकता हूं। जो जैसा दिखता है उसे बयां कर देता हूं। फिर भी यदि इस क्षेत्र को विकसित कर दिया जाए तो अच्छे पर्यटन स्थल के तौर पर उभर सकता है। यहां एक अच्छा पर्यटन स्थल विकसित करने के लिए सब कुछ है। केवल विकास की जरूरत है। जैसे तालाब में नौकायन, फौवारे, लाइटिंग और केफैटेरिया इत्यादि। इटली का रोम इसका बहुत बड़ा उदाहरण है। उन्होंने अपनी 2000 साल पुरानी विरासत को ज्यों का त्यों संभाल रखा है। उससे किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जिससे दुनिया का हर चौथा पर्यटक विरासत को देखने रोम जाता है।
जारी…

















