
– विवेक कुमार मिश्र

दिसंबर की शाम
बर्फ के फाहे सी
उड़ती-उड़ती चाय के भाप में
कहीं खो सी जाती है
दिसंबर की चाय गर्माहट का
सिरा पकड़ा जाती है
दिसंबर की चाय
जून की चाय नहीं होती
न ही दिसंबर की चाय
सितंबर के चाय जैसी होती
दिसंबर की चाय ,
बस दिसंबर जैसी होती
दिसंबर में जिस तरह
अंगारे भी मद्धिम से हो जाते
कुछ कुछ वैसे ही चाय की भाप
चेहरे तक आते-आते उड़ जाती
दिसंबर में चाय की भाप से
गर्माहट नहीं आती
दिसंबर में
चाय का रंग ही गर्माहट दे जाता
और यह भी सही है कि
दिसम्बर कहता है कि
जी भर कर पी लो चाय
यदि दिसंबर में भी चाय नहीं पीनी है
तो फिर कब पी सकते हो दिसंबर सी चाय
जो दिसंबर में दिसंबर सी
चाय नहीं पी पाता
वह कुछ भी करें या न करें
क्या फर्क पड़ता
दिसंबर जीवन को गहराई में
उतर कर देखना सीखता है
दिसंबर एक सिरे से जिंदगी को
गर्म आंच पर हौले-हौले सेंकता है
इस तरह दिसंबर
जीवन का पाठ पढ़ाते हुए
चलता ही रहता है
जहां से आंच , गर्माहट और भाप
अपने अपने सबक लेकर
चलते ही चलते हैं
दिसंबर की चाय
जिंदगी के भाप सी होती है
कहते हैं कि यहां से
जिंदगी को एक सिरा मिल जाता है ।