मजदूर दिवस और निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता

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प्रतीकात्मक फोटो

– विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

वह तोड़ती पत्थर निराला की एक ऐसी कविता है जो अपने समकाल में जितनी प्रासंगिक रही है उतनी ही आज भी है और अर्थ प्रसार में आज और ज्यादा ध्यान खींचती है। कवि की आंखों के आगे वस्तु दृश्य है कि एक मजदूरिन है जो पत्थर तोड़ रही है । जैसे जैसे धूप बढ़ रही है वैसे वैसे उसका काम कठिन होता जा रहा है पर मजदूरिन को एक पल के लिए भी कहां फुर्सत वह तो पत्थरों के ढ़ेर में घिरी हुई है और उसके लिए बस पत्थर तोड़ना है। छाया भी नहीं है। राहत की एक बूंद पानी भी नहीं है… सामने है तो एक महल है जहां तरह तरह की सुख सुविधा हो सकती है पर मजदूरिन को तो इन्हीं स्थितियों में काम करना है। यह सड़क इलाहाबाद की है। कविता की यह सड़क किसी भी शहर महानगर की हो सकती है। दृश्य में कोई अंतर नहीं होता बस शहर और वर्ष की तारीखें बदल सकती हैं पर इस तरह की कविताएं हमारे सोचने के तरीके में, जीवन जीने की स्थितियों में परिवर्तन करने के लिए होती हैं। हमारे करुणा के भाव को एक केंद्र पर संघनित करती हैं कि हम अपने आसपास जो मजदूर हैं उनके लिए छाया और पानी की कम से कम व्यवस्था तो करें। धूप में छाया तो नसीब हो। पर कविता के समकाल में स्थितियां जो है वह सामने ही है कि जो पत्थर तोड़ रही है उसके लिए कोई छायादार पेड़ नहीं है पर सामने ही तरुमालिका अट्टालिका प्रकार है। सामने महल है। यह सामने महल का होना और सामने ही एक युवती का पत्थर तोड़ना स्थिति को त्रासद अनुभव में बदलता है। वह बार बार पत्थर तोड़ती है। पत्थर तोड़ते तोड़ते उसकी स्थिति भी पत्थर सी हो जाती है यानी उसे कुछ भी नहीं दिखता कुछ भी नहीं सूझता वह तो बस पत्थर तोड़ रही है। सामने कवि हैं। अपने जमाने का चेतना संपन्न कवि युग द्रष्टा कवि पर जो पत्थर तोड़ रही है उसके लिए तो क्या है ? पेड़ की छाया भी नहीं और सामने ही राजप्रसाद महल चिढ़ा सा रहा है। गर्मियों का दिन है चारों तरफ से गर्म हवाएं उठ रही है। गर्द चिनगी छा गई है ‌। वह मजदूरिन क्या करें कहां देखें उसे तो बस पत्थर तोड़ना है और पत्थर तोड़ते तोड़ते अपनी संवेदना अपनी उपस्थिति और अपनी दुनिया को भुलाकर बस पत्थर हो जाना है। तभी तो अपने कर्म में लीन होते हुए वह कह उठती है मैं पत्थर तोड़ती। यह पत्थर तोड़ना एक समय के बाद किस तरह सारी संवेदना को खत्म कर देता है कैसे रूप यौवन सब धरा का धरा रह जाता है और आगे जो पत्थर है वह सबको ही पत्थर में बदल देता है। यह जो पत्थर हो जाने की अमानवीय स्थिति है उससे संवेदना के धरातल पर चेतना के धरातल पर यह कविता लगातार मुक्त होने की अपील करती है।

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की इस कविता को पढ़ें गुने और समझें ….

वह तोड़ती पत्थर;

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :—

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गईं,
प्राय: हुई दुपहर :—

वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा—
‘मैं तोड़ती पत्थर।’( निराला)

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श्रीराम पाण्डेय कोटा
श्रीराम पाण्डेय कोटा
21 days ago

महाप्राण निराला जी युगदृष्टा कवि थे इनकी रचना वह तोड़ती पत्थर, आज भी महानगरों के आसपास चरितार्थ हो रही है. डाक्टर विवेक मिश्र ने मई दिवस यानी मजदूरों कि दिन इस कविता को उद्धृत करके २१ वी सदी में मजदूर के शोषण को उजागर किया है