तेरे घर के बाग़ बग़ीचे, लदे हुए हैं फूलों से। मेरा ऑंगन ख़ाली-ख़ाली, मेरा उपवन वीराना।।

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फोटो अखिलेश कुमार

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

shakoor anwar
शकूर अनवर

कितना प्यारा सन्नाटा है, कैसा निर्जन वीराना।
इसमें प्रीत बसी है मेरी, मेरा साजन वीराना।।

शहर बसाओ, शहर जलाओ, मुझको इससे मतलब क्या।
मैं क्या समझूँ, मैं क्या जानूँ, मेरा मस्कन* वीराना।।
*
तेरे घर के बाग़ बग़ीचे, लदे हुए हैं फूलों से।
मेरा ऑंगन ख़ाली-ख़ाली, मेरा उपवन वीराना।।
*
पर्वत में है छाया मेरी, जंगल मेरी परछाई।
सहराओं* में अक्स* है, मेरा, मेरा, दर्पण वीराना*।।
*
वो गुलशन* का फूल सुगंधित, उसकी बात निराली है।
मेरी हस्ती* काॅंटों जैसी, मेरा, जीवन वीराना।।
*
हाथी घोड़े नौकर-चाकर, सब उसके दरवाज़े पर।
“अनवर” मैं तो फिर भी ख़ुश हूॅं, मेरा ऑंगन वीराना।।
*
शब्दार्थ:-

मस्कन* निवास, अक्स* परछाई, वीराना*सुनसान,जंगल, गुलशन* उपवन, हस्ती*जीवन।
*
शकूर अनवर
9460851271

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