
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

कितना प्यारा सन्नाटा है, कैसा निर्जन वीराना।
इसमें प्रीत बसी है मेरी, मेरा साजन वीराना।।
”
शहर बसाओ, शहर जलाओ, मुझको इससे मतलब क्या।
मैं क्या समझूँ, मैं क्या जानूँ, मेरा मस्कन* वीराना।।
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तेरे घर के बाग़ बग़ीचे, लदे हुए हैं फूलों से।
मेरा ऑंगन ख़ाली-ख़ाली, मेरा उपवन वीराना।।
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पर्वत में है छाया मेरी, जंगल मेरी परछाई।
सहराओं* में अक्स* है, मेरा, मेरा, दर्पण वीराना*।।
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वो गुलशन* का फूल सुगंधित, उसकी बात निराली है।
मेरी हस्ती* काॅंटों जैसी, मेरा, जीवन वीराना।।
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हाथी घोड़े नौकर-चाकर, सब उसके दरवाज़े पर।
“अनवर” मैं तो फिर भी ख़ुश हूॅं, मेरा ऑंगन वीराना।।
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शब्दार्थ:-
मस्कन* निवास, अक्स* परछाई, वीराना*सुनसान,जंगल, गुलशन* उपवन, हस्ती*जीवन।
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शकूर अनवर
9460851271