थका दिमाग और चाय

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– विवेक कुमार मिश्र-

vivek mishra
डॉ विवेक कुमार मिश्र

आज चाय नहीं मिली
हां आफिस के कामकाज में
चाय नहीं मिली, यह सभी को पता है कि
चाय न मिलने पर भी कहां काम रुकता

पर जब चाय के सूत्रधार नहीं होते तो
हजारों इच्छाएं ही क्यों न हो वह चाय से
दूर ही संसार भर की
गतिविधियों को सामने रख देती है

कामकाज तो एक तरह से दुनिया ही है
हर स्थिति में एक न एक काम सामने ही रहता है
एक काम यदि पूरा हो जाएं तो
दूसरा काम सिर पर आकर खड़ा हो जाता है

सिर भी कहां तक संभालें
चलते चलते सिर भी थक जाता
और तय है कि थके हुए दिमाग को
चाय तो चाहिए ही चाहिए

जब दिमाग ज्यादा थक जाता
तो चाय को सीधे सीधे मांग लेता
चाय के साथ काम-धाम की दुनिया में
एक स्पेस मिल जाता है,
थोड़ा आराम की मुद्रा बन जाती है

इस तरह चाय दिमाग को, मन मस्तिष्क को
एक समय में घिस जाने से बचा लेती है
इसीलिए ऐसा देखने में आता है कि
जब आदमी काम की अधिकता से
थका महसूस करने लगता है
तो चाय पर निकल जाता है या
अपनी मेज पर ही चाय मंगा लेता है

आफिस में जो मेज होती
वह चाय के रंग से भी रंग जाती
और चाय के साथ
जो जिंदगी हम सब जीते हैं
उसका तो कोई जवाब ही नहीं

हर आदमी जो काम-धाम की
दुनिया में मगन होता है
उसके लिए चाय एक औषधि की तरह से है
वह सब-कुछ छोड़ सकता है पर चाय नहीं
चाय में ही उसके मन प्राण बसा करते हैं

इसीलिए जब आदमी
चाय की यात्रा पर निकलता है
तो उसके लिए पूरी एक दुनिया
घूम सी जाती है
चाय की यात्रा में
हर समय, एक जादुई घोल सा होता है

आप किसी भी कोने में हों
दुनिया कैसे भी घूम रही हों,
कुछ हो या न हो
चाय पर ही दुनिया ऐसे घूम जाते हैं कि
दुनिया के हर रंग आंखों में ही घूम जाते हैं

चाय पीते हुए आदमी
सुकून सी जिंदगी जीता है,
चाय पर दुनिया घूमती रहती है
चाय अपने रंग के साथ
जीने का एक जरिया दे देती है,

चाय का अपना ही आनंद है
चाय बिना बात के या
बात में से बात निकाल कर
उत्सव, उल्लास और आंनद से
ऐसे जोड़ लेती है कि
दुनिया बस चाय पर ही दिखती है

दो लोग चाय पर एक दुनिया जोड़ देते हैं
जुड़ रहे संसार में जोड़ी गई दुनिया
सबसे बड़ा आश्चर्य है ।
– विवेक कुमार मिश्र

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