
– विवेक कुमार मिश्र

शक्ति का पर्व मनुष्य की चेतना के जागरण का पर्व है । कण कण में शक्ति को महसूस करना, जो भीतर है वह बाहर है , सबमें एक चेतना को महसूस करना ही शक्ति के स्तर पर जागना होता है । यह पहचान जब हो जाती है कि हमारे भीतर ही शक्ति का स्रोत है, वह कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर है और इस शक्ति से साक्षात्कार करना ही सच में जागरण होता है। यह जागरण चेतना का जागरण है । जब चैतन्य का बोध होता है तो हम अपने मूल स्वरूप को समझने लगते हैं । आदमी अक्सर अपने को पाने के लिए न जाने कहां कहां भटकता रहता है और जब पहचान लेता है कि जो है वहीं उसके सामने है तो वह अपने मूल स्वरूप को पाकर आह्लादित हो जाता है । यह आह्लाद की दशा ज्ञानदशा है रसदशा है और आनंद की अवस्था है । अपने मूल स्वरूप को पाना ही सही मायने में सिद्धि है । चेतना की उच्चतम दशा है । ब्राम्हांड में शक्ति का उद्घोष शाश्वत सत्य है । शक्ति के रहस्य को अपने भीतर महसूस करते हुए ही मनुष्य अपने से बाहर की सत्ता ब्रह्मांड की शक्तियों को सुनता है । शक्ति से साक्षात्कार चेतना से साक्षात्कार करना है । शक्ति को कैसे और किस स्तर पर महसूस करते हैं यह आपकी चेतनात्मक शक्ति पर निर्भर करता है । आंतरिक सत्ता को वहीं महसूस कर पाता है जिसकी चेतना उर्ध्व स्तर पर जागरित होती है । अपनी चेतनात्मक दशा को पहचानते हुए ब्राह्मांड में स्थित चेतना शक्ति को उर्जा को महसूस करना ही चेतना का जागरण कहलाता है।
‘राम की शक्ति पूजा’ निराला की लम्बी कविता है जिसका विधान कथात्मक विन्यास लिए हुए है । यह कविता सत्य के साक्षात्कार की कविता है, चेतना के जागरण की और इस अर्थ में अपने आंतरिक सत्व को पहचानने की कविता है । यह कविता साधना की उस भूमि पर अवस्थित है जहां से चरम निराशा के क्षण में आस्था की और अस्तित्व की खोज होती है । अनेक स्तर पर यह कविता अपनी सत्ता, अपनी पहचान और अपनी चेतना का उद्घोष करते हुए महाजागरण और महाचेतना की कविता बनती है यहां से रणभूमि में शक्ति के संधान की , उर्ध्व चेतना के जागरण की कविता को अपने भीतर बजते हुए पाते हैं । राम की शक्ति पूजा का जब भी पाठ करता हूं तब शक्ति साधना का साक्षात्कार महसूस होता है । यह कविता अपने भीतर ही बजती है और उस ध्वनि का उद्घोष करती है जो शक्ति का विस्तार करती है, शक्ति को समझने और जानने में मदद करती है । जीवन क्रम में एक न एक क्षण इस तरह आता है कि लगता है कि कुछ नहीं है, कुछ नहीं कर सकते और अपने भीतर से ही एक आवाज इस तरह से आती है कि रुको मत आगे बढ़ों – ‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका’ यह जो दूसरा मन है , जो भीतरी मन है वहीं शक्ति का पूंज है, वह हर स्थिति में अपने को नये सिरे से रच देता है अपनी वास्तविक पहचान को सामने लाता है और अपनी शक्ति को, अपनी क्षमता को पहचानों और आगे बढ़ चलों । यह शक्ति कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर ही है । इसे अपने ढ़ंग से खोजना है, अपनी शक्ति को जगाना है । यह जागरण की दशा महाप्राण निराला की कविता राम की शक्ति पूजा को जब अनुभव में लेकर पढ़ते हैं तब महसूस होता है कि शक्ति कहां और कैसे है । इस शक्ति को खोजना ही जीवन समर में निरंतर चलना है । निराला ने जो शक्ति स्थापन किया है वह अपने कथात्मक विन्यास के बावजूद हमारी आंतरिक चेतना को जगाती है । शक्तिपूजा में समर के भीतर रणभूमि में जिस तरह से शक्ति संधान के लिए साधना की गई है वह मनुष्य की चेतना शक्ति के उत्तरोत्तर जागरण की कथा को प्रकट करती है। जब साधक अपना सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर हो जाता है तो देवी का अवतरण होता है और देवी लक लक करते फलक को थाम लेती हैं। यहां साधक के रूप में राम की साधना सफल होती है।
‘होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन।
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई लीन ।।’
यह शक्ति का लीन होना अपनी आंतरिक उर्जा को ब्राह्मांड की उर्जा से जोड़कर शक्ति का साक्षात्कार करना है। यह कविता महासमर में चेतना को साधने की शक्ति को प्राप्त करने की कविता है।
कविता की शुरुआत होती है –
‘रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम रावण का अपराजेय समर
यह शाश्वत युद्ध चलता ही रहता है। यह अंदर बाहर का , सत्य असत्य का संघर्ष शाश्वत है। यह निरंतर चलता रहता है। साधक को अपनी उच्चतर वृत्तियों से इस युद्ध का शमन करना पड़ता है।
‘धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध ,
धिक् साधन , जिसके लिए सदा ही किया शोध ।
जानकी ! हाय , उद्धार प्रिया का हो न सका। ‘ चरम हताशा के क्षणों में ही मनुष्य विकल्प का चयन करता है। अपनी चेतना व शक्ति की खोज करता है अपने आप को पहचानने की कोशिश करता है कि मैं कहां हूं और यह क्या है? मैं क्या कर सकता हूं। इसी कोशिश में शक्तिपूजा के राम को ध्यान आता है कि –
‘कहती थी माता मुझे सदा राजीव नयन
दो नीलकमल हैं शेष अभी , यह पुरश्चरण
पूरा करता हूं देकर मातः एक नयन ।
राम का यह दृढ़ निश्चय और देवी का अवतरण कविता को एक ऐसी उच्च भूमि पर लेकर जाता है जहां से साधक को अपनी साधना का फल मिलता है। साधना भी अपने सर्वस्व को अर्पित करने की है। जब ऐसा संकल्प हो तो फिर कैसा भी समर क्यों न हो विजय अवश्य होती है। हर परिस्थिति में युद्ध में जूझना है। पीछे नहीं हटना है और जब स्वयं को भी अर्पित करने की बारी हो तब भी नहीं…इसी कठोर भूमि पर यह कविता शक्ति से साक्षात्कार कराती है। अंत में महाशक्ति का बदन में लीन होना इसी ओर इंगित है ।
हमें अपनी शक्ति को उर्ध्व दिशा में जगाना है । शक्ति कहीं बाहर नहीं है जो ब्राह्मांड में शक्ति के स्रोत हैं वे हमारे भीतर आंतरिक चेतनात्मक सत्ता के रूप में भी हैं । इस शक्ति को जानना पहचानना और जगाना ही शक्ति से साक्षात्कार करना है । साधना की भूमि पर आदमी तभी जा पाता है जब वह अपनी आत्मसत्ता को खोजता है अपने आपको पहचानना शुरू करता है और अपनी ही आंतरिक शक्तियों से टकराते हुए ब्राह्मांड की शक्तियों से टकराता है तब जाकर वह सही मायने में शक्ति से साक्षात्कार करता है ।
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