शकूर अनवर और उनकी शायरी

अनवर की शायरी की विशेषता है कि वे जीवन के यथार्थ की अक्कासी बहुत ही आसान लफ्ज़ों में कर देते हैं। कारण यह कि वे एक लम्बी डगर के मुसाफिर हैं। शायरी में जबरन काले-सफेद का कंट्रास्ट दिखा कर चमत्कार पैदा करना उनका उद्देश्य नहीं। किन्तु जीवन की सच्चाइयाँ उनकी शायरी में जिस तरह गुँथी हुई हैं, उनका अपना सौन्दर्य है, अपना जादू है, जो पढ़ने-सुनने वालों के दिलो-दिमाग़ पर छा जाता है।

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शकूर अनवर

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राजस्थान साहित्य अकादमी ने द ओपिनियन में नियमित अपनी शायरी से योगदान देने वाले शायर शकूर अनवर को सीनियर अदीब अवार्ड 2023-24 से सम्मानित किया है। उन्हें पुरस्कार के साथ 11000 रुपए की राशि भेंट की गई है। द ओपिनियन परिवार उनके स्वस्थ और दीर्घायु होने तथा निरंतर लेखन कर्म में व्यस्त रहने की कामना करता है। शकूर अनवर की शायरी के सफर के बारे में जाने माने कवि, गीतकार और समालोचक महेन्द्र नेह का यह लेख प्रस्तुत है। सं.

. -महेन्द्र नेह-

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-महेन्द्र नेह-

शकूर अनवर और उनकी शायरी के बारे में कुछ कहना आसान नहीं है। नदियों, पहाड़ों, बादलों, रेगिस्तान, समुद्र और आसमान के बारे में दुनिया की हर भाषा में कविताएँ लिखी गई हैं, गीत गाये गये हैं, उपन्यास और कहानियाँ भी लिखी गई हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि किसी भी रचनाकार ने उनकी पूरी थाह पा ली है, उनके मिज़ाज और विस्तार को वैसा का वैसा पुनर्सृजित कर दिया है। यह इसलिए भी एक चुनौती है कि प्रड्डति स्वयं को क्षण-क्षण बदल रही है। वह नित्य-नवोन्मेष की गति और प्रवाह में है। उसकी वस्तु और रूप में प्रतिपल कुछ नया जुड़ रहा है। कुछ पुराना टूट कर बिखर रहा है। जब तक मनुष्य उसके नयेपन को जानने-समझने की कोशिश करता है, तब तक वह कई मंजिलें तय कर चुकी होती हैं।

शकूर अनवर की शायरी भी स्वयं को प्रतिपल बदलने की  जद्दोजहद में है। जब तक हम उनके किसी पुराने ग़ज़ल या कविता-संग्रह में डूब कर कुछ जानने-समझने और स्वयं को समृ( करने का प्रयत्न कर रहे होते हैं, वे कोई न कोई नया संकलन या फोल्डर लेकर आ जाते हैं और हमारी चेतना के प्रवाह में नया हस्तक्षेप कर देते हैं। अपेन नये ज्ञान, नये अनुभवों और नई संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने की सहज प्रकिया उनकी शायरी में हर-दिन एक नई खूबी, एक नया मोड़, एक नई कौंध पैदा कर देती है। यदि ऊपर-ऊपर से देखें तो सब कुछ वैसा ही दिखता है, लेकिन तात्विक-रूप से बहुत कुछ बदल चुका होता है।

चार दशक से अधिक समय गुजर गया हम एक दूसरे के बहुत करीब आते गये। जिन्दगी और शायरी की दुनिया दोनों में हम, हम नवा, हम कदम रहे हंै, एक हद तक हम-ख़याल भी। लेकिन यह पहली बार हो रहा है कि मैं शकूर अनवर की काव्य-साधना, उनकी शायरी के बारे में कुछ कहने के लिए अपनी मानसिक तैयारी कर रहा हूँ। यह मेरी वर्षों-पुरानी चाहत थी। किन्तु मुझे हमेशा यह लगता रहा कि कहीं मेरी शब्द-सामथ्र्य अनवर की शायरी के मुकाबले छोटी न पड़ जाये। यह एक संग-तराश का द्वन्द्व है, जो अक्सर मन में उभर आता है।

शकूर अनवर जिन्दगी को दूर खड़े होकर देखने वाले तमाशाई शायर नहीं हैं। वे जिन्दगी की कठिनाइयों और परेशानियों के बीच उतर कर, उनके बीचों-बीच जाकर समाज की गहमा-गहमी के बीच जीने वाले शायर हैं :-

    यूँ न साहिल पे खड़े हो के समन्दर देखो

                                    देखना है तो ज़रा इस में उतर कर देखो

अनवर की शायरी की विशेषता है कि वे जीवन के यथार्थ की अक्कासी बहुत ही आसान लफ्ज़ों में कर देते हैं। कारण यह कि वे एक लम्बी डगर के मुसाफिर हैं। शायरी में जबरन काले-सफेद का कंट्रास्ट दिखा कर चमत्कार पैदा करना उनका उद्देश्य नहीं। किन्तु जीवन की सच्चाइयाँ उनकी शायरी में जिस तरह गुँथी हुई हैं, उनका अपना सौन्दर्य है, अपना जादू है, जो पढ़ने-सुनने वालों के दिलो-दिमाग़ पर छा जाता है। उनकी शायरी तठस्थ-दर्शक की शायरी नहीं है। समय की सच्चाइयों से रू-ब-रू होकर उनके दिल में जो बेचैनियाँ पैदा होती हैं, वे चुपचाप हमारे दिलों में उतर जाती हैं। ये उनकी हुनरमंदी है जो एक दिन में हासिल नहीं हुई। वे जो मंज़र सामने दिख रहा है, उसकी हू-ब-हू अक्कासी नहीं करते, उस मंजर के पीछे छुपे यथार्थ का आभ्यन्तरीकरण करते हैं और फिर अपनी शायरी में उसे कलात्मक तरीके से व्यक्त करते हैं। इसीलिए शकूर अनवर की शायरी का रंग उन तमाम शायरों से हटकर है जो केवल सामने दिख रहा है, उसे ही बयान कर देने तक सीमित रहते हैं। वे कहते हैं:-

    अपने माज़ी का कोई नक़्शे-मुनव्वर न बता

                                    गुमशुदा जन्नते-फिरदौस का मंज़र न बता

                                    ज़िन्दगी ख्वाब नहीं आँख का धोखा भी नहीं

                                    इस हक़ीक़त को सराबों का समन्दर न बता

दुष्यंत कुमार को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ी थी कि वे अवाम के शायर हैं या फिर उनकी शायरी प्रगतिशील-जनवादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है। शकूर अनवर ने भी कभी इस तरह का बयान नहीं दिया। यह काम उन्होंने अपने पाठकों और समीक्षकों के लिए छोड़ रखा है। मेरा मानना यह है कि प्रगतिशीलता और जनवाद को अनवर ने अपनी ज़िन्दगी के मक्सद से तो जोड़ दिया, मगर किसी दुशाले की तरह ओढ़ा नहीं है, लेकिन जिस तरह उनकी शायरी ने जीवन-यथार्थ को उसकी पेचीदगियों के साथ चित्रित किया है, वह उन्हें उन बहुत सारे प्रगतिशीलों से आगे की क़तारों में खड़ा करता है, जो प्रगतिशीलता का इस्तेमाल मात्र अपनी शायरी को चमकाने के लिए करते हैं। यह निर्विवाद है कि अनवर की शायरी में जो कुछ है खरा-खरा है, वहाँ छद्म दूर-दूर तक नहीं है।

अनवर की शायरी के और भी कई रंग हैं। फागुन के महीने में उनके दिल के तार लय पकड़ लेते हैं और ये संसार खुशी से झूमने लगता है। उमंगों और तरंगों के इस मौसम को वे जीभर कर जीना चाहते हैं, होली के हसीं त्यौहार के नक्श उनके ज़हन में उभरने लगते हैं, लेकिन बदले हुए कुछ समय की सच्चाइयाँ सामने आते ही, उनका दिल शंकित हो उठता है:-

अभी तो बस मुहब्बत से दिलों को राम करना है

                                    लहू से तर न कर देना दरो-दीवार फागुन में

ये जो ‘‘दिलों को राम करना है’’ वाली उक्ति है, वह अनवर की शाइरी को साहित्य और समाज की वर्तमान सतह से बहुत ऊँचा उठा देती है। हम देख रहे हैं कि इन दिनों के कई कवि-शायर धर्म और मज़हब के रंग में अपनी कविता को डुबो कर नाम और दाम दोनों कमाने में लगे हुए हैं। साप्रदायिकता की आग उनके यहाँ एक बाज़ार में बिकने वाली जिन्स की तरह है। समाज को टुकड़ों में बाँटने वाली राजनीति के सामने वे प्रतिरोध की कविता नहीं लिखते, अपितु अपने इस पुण्य-कर्म के प्रतिफल के रूप में ईनाम और इकराम से उपड्डत भी होते हैं। इसके विपरीत शकूर अनवर की शायरी इस बात को पूरी गहराई से समझती है कि:-

दिलों में बुग़्ज़ो-कुदूरत है क्या किया जाये

                                    ये अह्दे-नौ की सियासत है क्या किया जाये

                                    वो जिसका नाम था बस घर जलाने वालों मंे

                                    उसी की शह्र में इज़्ज़त है क्या किया जाये

                                    बड़ी पूँजी वो अर्जित कर रहे हैं,

                                    जो अपने ग़म को संचित कर रहे हैं

                                    उन्हीं फूलों का दुश्मन है ज़माना,

                                    जो उपवन को सुगंधित कर रहे हैं

                                    हमें पिंजरे में करके क़ैद अनवर,

                                    वो अपनी जीत निश्चित कर रहे हैं

शकूर अनवर की ग़ज़लें वर्तमान राजनीति और व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य करती हुई, उसे बेनकाब करती हैं, लेकिन एक दौर ऐसा भी आया, जब उन्हें लगा कि कुछ ऐसे विचार, कुछ ऐसी सच्चाइयाँ भी हैं, जो ग़ज़ल की सीमाओं में व्यक्त नहीं की जा सकतीं। यूँ कहें कि नया कथ्य अपने लिए नये शिल्प की माँग करता है। शकूर अनवर ने इसके लिए छन्द मुक्त कविताओं का वितान चुना। ‘सच यही है अगर’ कविता के जरिये वे वर्तमान-व्यवस्था के उस भयावह-दौर की तस्वीर सामने लाते हैं, जो पूरी इंसानियत के लिए जुल्म और तशद्दुद की शहकार बन गई है। वे साफ-साफ लिखते हैं कि जिस तरह फिरंगी महल गिरे थे और ज़मींदारी के, शाहों के तोते उड़े थे, इसी तरह वर्तमान दौर भी बदलेगा:-

कैसे टूटे थे वो फिरंगी महल

                                    कैसे  तुर्रे  गिरे  कुलाहों  के

                                    कैसे बदली थी ये ज़मींदारी

                                    कैसे तोते उड़े  थे  शाहों के

                                    अब भी  आसार  बन रहे  हैं वही

                                    अब भी किर्दार बन रहे हैं वही

                                    वो भी इक दौर था जो बदला था

                                    ये भी इक दौर है जो बदलेगा….

‘दरिया, लहरें और किनारा’’ में शायर शकूर अनवर ने पंजाब के लोकप्रिय छंद ‘माहिया’ को अपने ढंग में ढाल कर, ज़माने की सच्चाइयाँ उजागर की हैं। तीन पंक्तियों के इस छंद की एक बानगी पेश है:-

  ‘‘हम दार पे रख देंगे / गर्दन को मुहब्बत में / तलवार पे रख देंगे’’

            ‘‘इतना भी नहीं बस में / झगड़ा है खुदाओं का / हम लड़ते हैं आपस में’’

‘‘सुख दुख का अखाड़ा है / जीवन है बहुत मुश्किल / सतरह का पहाड़ा है’’

इन पुस्तिकाओं और फोल्डरों के प्रकाशित होने वाले दौर में शकूर अनवर की ज़िन्दगी और शायरी में अन्दर ही अन्दर कुछ ऐसा पकता रहा, जिसे वे चुपचाप अपने क़लम से दर्ज करते रहे। सहेजते रहे। यह उनकी शायरी में एक नया मोड़ था। एक नई सृजनात्मक छटपटाहट थी, जो उनके दिमाग़ के आवे में पक रही थी। जब अनवर समन्दर-समन्दर जाने की बात करते थे ‘मुझे ये आसमाँ छोटा पड़ेगा’ जैसे शेर लिखते थे और इस अहसास को व्यक्त करते थे कि:-

एक सहरा मेरे अन्दर भी मिलेगा तुम को

                                    एक वुसअत है मेेरे दिल में समन्दर की तरह।

                                    कोई तख़्लीक मेरे नाम को ज़िंदा कर दे

                                    कोई बुत मैं भी बनाऊँ कभी आज़र की तरह

तब शायद न तो स्वयं उन्हें या उनकी शायरी से वाबस्ता पाठकों को यह अन्दाज़ था कि शकूर अनवर ‘बुत-परस्ती’ से परहेज करते हुए भी सुप्रसि( मूर्ति शिल्पी आज़र की तरह शायरी की दुनिया में नये बुत तराशने की जुस्तजू में मुब्तिला होंगे।

अनवर की शायरी का यह नया परिप्रेक्ष्य हाल ही में उनके उर्दू ग़ज़ल संग्रह ‘रेत का एक घर’ और हिन्दी ग़ज़ल संग्रह ‘पथरीली झीलें’ में उभर कर आया है। अभी इन दोनों संग्रहों की ग़ज़लों में शकूर अनवर ने ज़िन्दगी की सच्चाइयों को अपनी दृष्टि से देखा है और खूब देखा है।

हम उम्मीद करते हैं कि उर्दू और हिन्दी की गंगा-जमुनी संस्ड्डति को अपने आसान लफ़्जों में पिरोने वाले इस शायर को अदब की दुनिया में वह मुकाम निश्चित ही हासिल होगा, जिसका वह वाजिब हकदार है। उनकी शायरी की उर्दू-हिन्दी की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में जिस चाहत के साथ जगह दी जा रही है, वह आने वाले समय में निश्चित ही उन्हें नामवर शायरों की पंक्ति में खड़ा करेगी। फिलहाल, उनके ताज़ा ग़ज़ल संग्रह ‘पथरीली झीलें’ से एक ग़ज़ल के चन्द शेरों को आपके साथ साझा कर रहा हूँ:-

    लड़ूँगा फिर मुक़द्दर से मैं अपने

                                                सितारों से नया झगड़ा पड़ा है।

                                                मिलेगा जब समन्दर तो कहूँगा

                                                मेरी झोली में इक दरिया पड़ा है।

                                                अभी सूरज कहाँ डूबा है ‘अनवर’

                                                अभी तो शाम तक रस्ता पड़ा है।

            – 80, प्रताप नगर, दादाबाड़ी, कोटा (राज.) मो. 9414176444

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रजनीश मंगा
रजनीश मंगा
2 years ago

बहुत बहुत बधाई शकूर अनवर साहब। आशा करते हैं कि शायरी और सफलता का यह सिलसिला आगे भी निरंतर चलता रहेगा।