ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
ऊरूजे-ज़ीस्त* का कैसा ज़वाल* कर बैठा।
बुरा हो इश्क़ का मजनूॅं सा हाल कर बैठा।।
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वो क़ुर्बतों* का मुख़ालिफ़* वो लम्स* का दुशमन।
तू किस से ऐ दिले-नादाॅं* सवाल कर बैठा।।
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तजुर्बा* उसको ज़माने का कुछ नहीं होगा।
सफ़ेद धूप में जो अपने बाल कर बैठा।।
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जवान होना था लेकिन जवान होने में।
तबाह कितने दिनो- माहो-साल कर बैठा।।
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कहीं न बाहमी* रिश्तों में बाल* आ जाये।
मैं उसके सामने ख़ुद को सॅंभाल कर बैठा।।
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ग़ज़ल में रंगे-तग़ज़्ज़ुल* भी ख़ूब है “अनवर”।
तू आज अपने हुनर में कमाल कर बैठा।।
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ऊरूजे-ज़ीस्त*जीवन का उत्थान
ज़वाल*पतन
क़ुर्बतो*समीपताओं
मुखालिफ़*विरोधी
लम्स*स्पर्श
दिले-नादाॅं*नादान दिल
तजुर्बा*अनुभव
बाहमी*पारस्परिक
बाल आना*दरार पड़ना
रंगे-तग़ज़्ज़ुल*ग़ज़ल की काव्यात्मकता
शकूर अनवर
9460851271